॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*न जाणूं, हाँजी, चुप गहि, मेट अग्नि की झाल ।*
*सदा सजीवन सुमिरिये, दादू बंचै काल ॥७०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पक्षपाती संसारी लोग यह कहें कि तुम इस बात को नहीं जानते, तो कहो - "हाँ, नहीं जानता हूँ ।" योग्य, अयोग्य बात में, "हाँ में हाँ" मिलाकर या व्यवहार में सर्वथा "मौन धारण" करके, पक्षपात रूपी अग्नि की झाल को मेटकर, फिर एक रस परमेश्वर में अखंड लय लगावे । इस रीति से कोई उत्तम जिज्ञासु ही आवागमन रूप काल के चक्र से बचते हैं ॥७०॥
जया नगारे चोट सुन हिमगिरि करै उपाधि ।
जन रज्जब यो जानिये, तहाँ मौन व्रत साधि ॥
चंचल बानी श्रवण सुनि, मुनि जन पकरी मौन ।
साधु छांह सुमेर की, रज्जब डिगै न पौन ॥
दृष्टान्त - एक मुनि बैठे हुए थे । एक चंचल स्त्री आई और मुनि से नाना प्रकार की छेड़ - छाड़ करने लगी । स्त्री की चंचल बातें सुनकर मुनि मौन हो गये ।
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*पंथा - पंथी*
*पंथ चलैं ते प्राणिया, तेता कुल व्यवहार ।*
*निर्पख साधु सो सही, जिनके एक अधार ॥७१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो सांसारिक पंथा - पंथी वाले पक्षपाती लोग हैं, नाना प्रकार के ग्रन्थों में आसक्ति रखने वाले सामान्य प्राणी, वे सब अनेकों मजहबी फांसियों में बंधे हुए हैं । जितने मत - मतान्तर हैं, उतने ही उनके व्यवहार भी भिन्न - भिन्न हैं । निष्पक्ष तो सच्चे मध्यमार्गी संत हैं, जिनके केवल एक परमेश्वर के नाम का ही आधार है ॥७१॥
(क्रमशः)
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