रविवार, 23 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(६४/६६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू द्वै पख दूर कर, निर्पख निर्मल नांव ।*
*आपा मेटै हरि भजै, ताकी मैं बलि जांव ॥६४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन्होंने पक्षपात को अपने अन्तःकरण से दूर करके निष्पक्ष होकर, मध्य मार्ग से परमेश्‍वर का अन्तःकरण में निष्काम नाम - स्मरण करते हैं और अपने अनात्म, आपा अहंकार को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, ऐसे संत, भक्तों की हम बलिहारी जाते हैं ॥६४॥ 
*संजीवन* 
*दादू तज संसार सब, रहै निराला होइ ।* 
*अविनाशी के आसरे, काल न लागै कोइ ॥६५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसार में आसक्ति का त्याग करके तटस्थ रहें और अविनाशी परमेश्‍वर के नाम - स्मरण का आश्रय धारण करके जो रहते हैं, उनको कोई भी काल स्पर्श नहीं करता है अर्थात् काल उनसे अलग रहता है ॥६५॥ 
राम - रामेति ये नित्यं, जपन्ति मनुजा भुवि । 
तेषां मृत्यु - भया हानिः, न भवन्ति कदाचन ॥ 
जग जगन्नाथ अचूक है, जम जालिम की चोट । 
उबरै हरि के आसरै, कै निज सत की ओट ॥ 
*मत्सर ईर्ष्या* 
*कलियुग कूकर कलमुँहा, उठ - उठ लागै धाइ ।* 
*दादू क्यों करि छूटिये, कलियुग बड़ी बलाइ ॥६६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कलियुगी सांसारिक प्राणी पक्षपाती, भेदवादी, पामर, निष्पक्ष मध्यमार्गी संतों के पीछे पड़कर काले मुँह के कुत्ते की तरह कठोर बचन और शारीरिक पीड़ा आदि द्वारा, उन संतों को नाना प्रकार के संताप देते हैं । इसलिये संतों को ऐसे पुरुषों से परम सावधान रहना चाहिये अर्थात् उनका संग त्यागकर परमेश्‍वर का निष्काम नाम - स्मरण करना चाहिये ॥६६॥ 
कलियुग साधु रूप धर, किये उपद्रव तीन । 
जन राघो ता नगर को, धर्म ले गयो छीन ॥ 
वेश्या, कलाली, वधिक पुनि, कीन्हे चरित ही तीन । 
‘राधो’ राती नृप सूं कही, भाव न भूंडो कीन ॥ 
दृष्टान्त - एक सच्चे निष्पक्ष संत थे । वे नगर में परमेश्‍वर की कथा करने लगे । राजा रानी के सहित सारा नगर कथा श्रवण करने आया करता था । संत बड़े विवेकी थे, परन्तु वे कलियुग का बहुत खंडन किया करते थे । तब कलियुग ने एक रोज विचार किया कि यह मेरे राज्य मे रहकर मेरा खंडन करता है । अतः कलियुग ने अपने तीन रूप बनाये । एक वेश्या का, दूसरा कसाई का, तीसरा कलाल(मदिरा बेचने वाले) का । कथा के समय वेश्या आयी और बोली - महाराज संत जी ! यह आपने मेरे साथ जो कुकर्म किया, उसका फल मेरे गर्भ रह गया, अब मेरे बच्चा होने वाला है, मेरे जापे में खान - पान आदि का इन्तजाम करो । 
महात्मा ने उसकी तरफ देखा और बोले - "ठीक है भाई ! यह जो कथा पर चढावा आयेगा, वह तेरे ही को देंगे ।" कुछ देर में कसाई आया और बोला - "इसकी आप लोग क्या कथा सुनते हो ? यह तो मेरे यहाँ से इतना मांस लाया है और खाया है, जिसके इसने आज तक पैसे नहीं दिये । मैं पैसे लेने आया हूँ ।" साथ ही मदिरा बेचने वाला आया । वह भी बोला - "इतनी शराब की बोतलें तुमने पी हैं, उनके आज मुझे रुपये देओ ।" संत उन दोनों को बोले - "हाँ भई ! तुम्हें भी देंगे ।" इस लीला को देखकर सर्व श्रोता उठ चले, परन्तु राजा और रानी निश्‍चल बैठे रहे । संत जी कथा निश्‍चल मन से करते रहे, किंचित् भी उदास नहीं हुए । 
कथा समय राधो कहै, श्रोता सारो गाँव । 
इतनी सुनकर उठि चले, फेर न लीनों नांव ॥ 
कलिजुग माया देख करि, भक्ति ही में लीन । 
रानी राजा से कहै, भाव न झूठो कीन ॥
साधु कथा निश्‍चल करै, मैलो कीयो न मन । 
फिर कलिजुग पांवां पङ्यो, राधो वे जन धन ॥ 
राधोदास जी महाराज कहते हैं कि फिर कलियुग ने संत के चरणों में आकर नमस्कार किया और बोला - "मेरा अपराध क्षमा करें, जो मैंने आपकी श्रोताओं के सामने मिथ्या आलोचना की है, उनके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ । आप राम के सच्चे भक्त हो ।" 
(क्रमशः)

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