रविवार, 23 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(६१/६३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*हरि भरोसा*
*दादू पख काहू के ना मिलैं, निष्कामी निर्पख साध ।* 
*एक भरोसे राम के, खेलैं खेल अगाध ॥६१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे निर्पक्ष मध्यमार्गी संत, एक राम के भरोसे पर सर्व व्यवहार करते हैं और प्रभु से ज्ञान - भक्ति द्वारा खेलते हैं तथा संसारी जनों में भगवान् की महिमा प्रकट करते हैं ॥६१॥ 
*मध्य* 
*दादू पखा पखी संसार सब, निर्पख विरला कोइ ।* 
*सोई निर्पख होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥६२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सारे संसार के अज्ञानी प्राणी पक्षा - पक्षी में बँध रहे है और ईश्‍वर की भक्ति भी पक्षपात से ही करते हैं । अल्लाह का नाम लेने वाले राम - नाम में भेद समझते हैं और राम - कृष्ण का स्मरण करने वाले, अल्लाह आदि में भेद समझते हैं । संसार में निष्पक्ष मध्यमार्गी कोई विरला ही पुरुष है । वही निष्पक्ष होगा, जिसके अन्तःकरण में निरंजन, निराकार, शुद्ध ब्रह्म का नाम - स्मरण है ॥६२॥ 
*अपने अपने पंथ की, सब को कहै बढाइ ।* 
*तातैं दादू एक सौं, अन्तरगति ल्यौ लाइ ॥६३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पक्षपाती संसार के प्राणी, अपने - अपने सम्प्रदाय, मत आदि की बड़ाई चढा - बढा कर बताते हैं । इसलिये इन पक्षपातियों के मत - मतान्तरों के झगड़ों में फँसे हुए लोगों से अलग होकर, अन्तःकरण में वह जो सबका उपास्यदेव कारण ब्रह्म है, उसी के नाम - स्मरण में लय लगाओ ॥६३॥ 
षट् दर्शन खोजे सबै, बांदी जिमावन काज । 
सबहि कही आप आपनी, बांदा जिमाऊं आज ॥ 
दृष्टान्त ~ एक समय हरिद्वार के कुम्भ पर षट् दर्शन साधु समाज तीर्थ स्नान को आये हुए थे । बहुत से गृहस्थी यात्री भी आए थे । एक राजा की बांदी(दरोगन) भी आई और गंगा - स्नान करके विचार किया कि साधुओं को भंडारा दे दूं । यह सोचकर सभी षट् दर्शनी संतों के स्थानों में गई और भंडारे के लिये पूछने लगी । 
प्रत्येक ने अपनी - अपनी पक्ष की बात कही और दूसरों को अपने से छोटे और कुमार्गी बताने लगे । तब बांदी ने विचार किया कि ये राग - द्वेष में भरे हुए हैं, इनको जिमाने का क्या फल होगा ? अब तो मैं अपनी जाति वाले बांदे - बांदी, दरोगा - दरोगनियों को ही जिमाऊँगी । इनसे तो वही ठीक हैं, क्यों कि वे मेरी जाति के तो हैं । यह राम के भक्त कहला कर भी ऊँच - नीच के भेद मे पड़े हुए हैं । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि “अपने अपने पंथ की, सब को कहै बढाइ ।” 
(क्रमशः)

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