*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“चतुर्थ - तरंग” १५-१७)*
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*सांभर में दस माह बीता*
*सोरठा*
बीते नो दस मास, गावत हरि गुण रैन दिन ।
साँभर - सागर वास, तप मूरति शुचि शीलघन ॥१५॥
तब तजि दुग्ध आहार, लेत सोगरा - बाजरी ।
ऐसा सांत विचार, भक्ति करें हरि - सांकरी ॥१६॥
इस तरह अहर्निश हरिगुण गाते हुये नौ दश मास बीत गये । तपोमूर्ति शुचि शीलघन श्री दादूजी का आसन वहीं सागर - मध्य शिला पर ही विद्यमान था । अब उन्होंने दुग्ध पान छोड़ दिया, और बाजरी - अन्न का सोगरा(रोटी) ग्रहण करने लगे । शांत विचारों के साथ सघन हरिभक्ति करते रहते ॥१५ - १६॥
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*शिष्य - सेवक गुरु आज्ञा में रहता सदा*
*दोहा*
सेवक गोविन्द दास कूं, भोजन आज्ञा कीन ।
लाय सोगरा प्रीति सूं, गुरु आज्ञा आधीन ॥१७॥
सेवक गोविन्दराम को भोजन लाने की आज्ञा दी । वह अत्यन्त प्रीति से बाजरे का सोगरा बनाकर लाया । सदा गुरु - आज्ञानुसार सेवा करता रहता ॥१७॥
(क्रमशः)
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