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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/१८*
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*भव सागर में डूबतां, सद्गुरु काढे आइ ।*
*दादू खेवट गुरु मिल्या, लीये नाव चढाइ ॥१८॥*
उक्त साखी के "दादू खेवट गुरु मिल्या" इस अंश पर दृष्टांत है -
ज्ञान क्रिया दोऊ मिलैं, तब ही होय उबार ।
यथा अंध के कंध पर, पंगु होय सवार ॥१०॥
सद्गुरु विवेक रूप ज्ञान का उपदेश करते हैं, तब मानस साधन - वैराग्य, मनन, निदिध्यासन तथा कायक क्रिया भी निष्काम भाव से करने का उपदेश करते हैं । यदि केवल ज्ञान ही सुने और साधन रूप क्रिया नहीं करे तो केवल वाचिक ज्ञान से उद्धार नहीं होता ।
उक्त साधन करने पर गुरु अपरोक्ष ज्ञान रूप नाव पर चढ़ाकर संसार सिन्धु से पार कर देते हैं । जैसे अंध के कंधे पर पंगु सवार होकर अग्नि से बच निकले थे, वैसे ही उक्त क्रियाओं पर ज्ञानी आरूढ होकर संसार से पार परब्रह्म को प्राप्त होता है । अंध पंगु की कथा इस नीचे लिखे दोहे में देखिये -
सूर पंगु पुर में बसें, और लोग गये काम ।
अग्नि लगी दोऊ बचे, पुनः बाग मध्य राम ॥११॥
एक किसानों के ग्राम में एक अंधा और एक पंगु रहते थे । एक दिन खेती पकने के दिनों में खेती काटने के लिये सब स्त्री पुरुष खेतों में चले गये थे । उस दिन दैवयोग से ग्राम मे आग लग गई । ग्राम में केवल अंधा और पंगु दो ही व्यक्ति थे और दोनों उस समय एक स्थान में ही थे ।
पंगु ने कहा - ग्राम में आग लग गई है । हम लोग कैसे बचेंगे । अंधे ने कहा - तुम मेरे कंधे पर बैठ जाओ और मुझे मार्ग बताते जाओ ऐसा करने से अपने दोनों ही बच जायेंगे । फिर उन्होंने वैसा ही किया । ग्राम से निकल कर एक बाग में जाकर आनन्द से विश्राम किया ।
वैसे ज्ञान में क्रिया नहीं होती और क्रिया में ज्ञान नहीं होता । जब दोनों मिल जाते हैं अर्थात धारणा और ज्ञान दोनों होते हैं तब ही उद्धार होता है । गुरु दोनों से संपन्न कर के अपरोक्ष ज्ञान नाव पर चढाकर जैसे केवट नदी पार करता है वैसे ही साधकों को गुरु संसार से पार कर के परब्रह्म से मिला देते हैं ।
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