मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(तृ.दि.- १७/२४)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
तृतीय दिन ~ 
गल पसार निज काज सँवारे, पर का हित सो नांहि विचारे । 
सखी ऊँट यह मैं पहचानी, नहिं, सजनी यह स्वार्थी प्रानी ॥१७॥ 
आं. वृ. - ‘‘गला बढ़ा कर अपना कार्य ही सिद्ध करता है और परोपकार का विचार कभी नहीं करता। बता वह कौन है?’’ 
वा. वृ. - ‘‘ऊँट है। अपनी लम्बी गर्दन से आप तो अपना पेट भर लेता है; किन्तु दूसरों को एक पत्ता भी नहीं डालता।’’
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि! यह तो स्वार्थी मनुष्य है। अपना काम तो बना लेता है किन्तु परोपकार की ओर कुछ भी दृष्टिपात नहीं करता। तू कभी ऐसा न करना। अपने काम से अधिक परोपकार पर ध्यान देगी तब ही भगवत् स्वरूप का साक्षात्कार कर सकेगी। 
वा. वृ. - सखि । मैं पर उपकार तो, कर न सकी हूं लेश । 
घर के नाना कार्यों में, फँस पाया नित क्लेश ॥१८॥ 
सजनी तेरे पास भी, बैठ सकी मैं नांहि । 
गई आयु का रह गया, पछतावा मन मांहि ॥१९॥ 
किन्तु आज तो चित्त मम, लगा सखी तव पास । 
शनै: शनै: इमि होयगा, चित्त चपलता हास ॥२०॥ 
समय हो गया हे सखी! सुख से जाऊं आज । 
अब तो निश्‍चय हो गया, सुधरेगा मम काज ॥२१॥ 
कवि - कर प्रणाम बाई गई, करन लगी सब काज । 
भिक्षुन को देने लगी, मूठी मूठी नाज ॥२२॥ 
अशुभ भावना नाश हित, यत्न किया भरपूर । 
सबका शुभ सोचन लगी, दंभ कपट कर दूर ॥२३॥ 
करत-करत जब थक गई, निज हित परहित काम । 
तब सुषुप्ति में जाय कर, करन लगी विश्राम ॥२४॥ 
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इति श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता में तृतीय दिन वार्ता समाप्त :
(क्रमशः)

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