रविवार, 13 अक्टूबर 2013

दादू सद्गुरु सहज में.१/४


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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/४*
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*दादू सद्गुरु सहज में, कीया बहु उपकार ।*
*निर्धन धनवंत कर लिया गुरु मिलिया दातार ॥४॥* 
उक्त साखी के निर्धन धनवत कर लिया इस तृतीय पाद पर दृष्टांत है -
हंस हंसनी पय पियो, धरयो धरया की आस । 
रामरतन धन प्रकट्यो, कह जगजीवनदास ॥ 
इस दोहा के संख्या अंक नहीं दिया है । कारण ? यह चम्परामजी के दृष्टांत संग्रह में इस साखी पर नहीं लिखा है । यह जगजीवनजी दैसावालों का है, ऐसे ही जो दृष्टांत संग्रह का नहीं होगा, उस पर संख्या के अंक आगे भी नहीं दिये जायेंगे । ध्यान रहे । 
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उक्त दोहे की कथा - एक वैश्य के चार पुत्र थे । पिता का देहान्त हो गया था । सबसे छोटा पुत्र माता के साथ सत्संग में जाता था । उसकें भक्ति का रंग लग गया । वह कु़छ बडा हुआ तब भाइयों ने कहा - अब तुम बड़े हो गये हो दुकान पर आकर काम किया करो । उसने कहा - मैं तो दिन रात ही भजन, विचार रूप काम करता ही रहता हूँ । भाइयों ने कहा - वह कोई काम नहीं है । अब तुम को दुकान पर आकर काम करना होगा ही । वह नट गया । भाइयों में कलह होने लगा । 
तब उसकी माता ने उसे दो हजार रुपये देकर कमाई के लिये समुद्र पार जाने वाले लोगों के साथ यह सोच कर कि नहीं कमायेगा तो भी ये रुपये खाकर आयेगा तब तक तो घर में शान्ति रहेगी भेज दिया । वे सब जहाज में बैठकर चले । आगे एक टापू आया वहा जहाज ठहरा । चालकों ने कहा - यहां जहाज एक घण्टा ठहरेगा । पास ही यहां संत रहते हैं । 
जिनको संतों के दर्शन सत्संग करना हो वे जा सकते हैं किन्तु एक घण्टे के भीतर लौट आना । यदि कोई नहीं आयेगा तो उसके लिये जहाज नहीं रुकेगा । सब गये । उक्त लड़का तो सत्संग से संतुष्ट होकर वहां ही रह गया और सह समय पर उठ कर चल दिये । उसे बैठा देखकर वक्ता संत ने कहा - शीघ्र जाओ जहाज चला जायगा । तब उसने अपनी उक्त कथा सुनाकर वहां ही रहने का विचार प्रकट किया । 
संत भी उसके विचारों से समझ गये और उसे रामरत्न धन भी मिले और साथ ही लौकिक रत्न भी मिले ऐसा विचार करके उसके लिये एक अच्छा दूध देने वाली गाय मंगवा दी और कहा - समुद्र तट पर जो ऊँचा टीला दीख रहा है, उस पर प्राप्तः अंधेरे में ही दो मिट्टी के कुण्डों में सेर - सेर दूध भर कर उस पर रख आया करो और सूर्य कु़छ ऊंचा आवे तब कुण्डे उठा लाया करो । वह वैसे ही करने लगा । 
कु़छ दिनों बाद संतजी ने पू़छा - दूध के कुण्डे टीले पर रखते हो ? उसने कहा - प्रतिदिन प्रातः रख आता हूं । संतजी - उनमें कु़छ मिलता है ? साधक - तीन दिन तो कु़छ नहीं मिला किन्तु चौथे दिन से दोनों कुण्डों मे दो - दो मोती मिलते हैं । प्रातःकाल एक हंस और हंसनी मोती चुगकर वहां टीले पर आकर बैठते थे । तीन दिन तक दूध पीने पर हंसनी ने कहा जो व्यक्ति हमारे लिेय यहां दुध धरता है, उस धरने वाले की आशा हमको पूर्ण करनी ही चाहिये । हम मोती चुग कर आते है तब दो - दो मोची चूं चों में दबाकर लांवे और कुण्डों मे डाल दें तो उसकी भी आशा पूर्ण हो सकती है । अतः दो - दो मोती डाल जाते थे । 
संत जी ने कहा - गाय के गोबर को थापड़ियां थापा करो और दो थापड़ियों में दो - दो मोती रख दिया करो और उसके पहचानने के लिये एक चिन्ह कर दिया करो तथा बिना मोती की थापड़ी बिना चिन्ह की रखा करो । सब थापड़ीयों को संग्रह करते रहो । साधक ने भी वैसा ही किया । फिर उसके साथी आये तब उसे बोले घर चलो । उसने कहा - गुरुजी से पू़छ लूं । पू़छने पर गुरुजी ने कहा - अवश्य जाओ और थापडियां पीछे रखना और खाली आगे रखना । 
संतजी की आज्ञा से टापरू के साधक आदि ने सहयोग देकर उसी दिन जहाज पर बैठा दिया । उसने संतजी की आज्ञा के अनुसार जहाज में थापड़ियां रख लीं । जहाज समुद्र में किसी कारण से रुक गया । उसमें भोजन बनाने के लिये जलाने की वस्तुयें समाप्त हो गई थीं। साधक के ग्राम वालों ने उसे कहा - तेरी थापड़ियां दे दे । उसने कहा - मेरी तो कमाई ये ही है । उन लोगों ने कहा - ग्राम में एक की दश - दश तुमको दे देंगे । उसने कहा - लिख दो उन लोगों ने लिख दिया । 
फिर जहाज किनारे लगा तब साथ वाले जाने लगे तो उनसे कहा - मैं तो थापड़ियों को गाडी में भरकर धीरे - धीरे आऊंगा । मेरी माताजी को कहना थापड़ीयों के लिये एक कमरा खाली कराकर रखे । उन लोगों ने जाकर कह दिया । माताजी ने सोचा थापडियों के लिये कमरे की क्या आवश्यकता है ? खाली नहीं कराया । 
साधक भी पहुंचा और कमरा माँगने पर कहा - थापडियों को कौन ले जाता है ? बाहर ही पड़ी रहेंगी । किन्तु उसने नहीं माना तब कमरा देना ही पड़ा । दो - तीन दिन बाद जो विदेश से साथ आये थे वे साधक से बोले - कल राजा से मिलने चलेंगे । तुम भी चलो । उसने कहा अवश्य चलूंगा । सब राजा को भेंट देने के लिये अपनी - अपनी योग्यता के अनुसार वस्तुयें साथ में ली । साधक ने दो थापड़ी रेशम के रुमाल में बांधकर साथ ले ली । 
सबने अपनी २ भेंट राजा के आगे रखी । साधक की भेंट का रुमाल हटाया तो उसमें दो थापड़ी निकली । उन्हें देखकर राजा मन में रुष्ट तो हुआ किन्तु उसने सुन रखा था कि सेठजी का सबसे छोटा पुत्र बड़ा बुद्धिमान है । अतः दो जल के कूण्डे मंगवाकर उन थापिडयों को एक - एक करके उन कूण्डो में डाल दी फिर उनसे जिस देश में वे गये थे उस देश सम्बन्धी बातें करने लगा । 
इतने में ही थापड़ियां गलकर मोती चमकने लगे । राजा ने प्रसन्न होकर साधक को कहा आपकी इच्छा हो वही कहो । उस काम के करने में कु़छ देर नहीं लगेगी । उसने कहा इन मेरे साथ वालों ने मुझ से जहाज में थापड़ियाँ लीं थी और एक - एक की दश - दश देना लिख दिया था सो वे थापड़ियाँ मुझे दिला दें । 
राजा ने सुनते ही उनको कह दिया । शीघ्र से शीघ्र इनकी थापड़ियां दे देना मेरे पास पुनः यह बात नही आनी चाहिये । तब वे सब लोग डर गये । बाहर आकर साधक के चरण पकड कर कहने लगे हमें राजा के भय से बचाओ । उसने कहा - डरो नहीं यह तो आपको यह बताने के लिये ही कहा था कि सत्संग की तुम सदा हंसी उडाया करते थे । 
यह सब सत्संग का ही प्रताप है । फिर तो वे सब भी सत्संग करने लगे थे तथा सब ग्राम ही भक्त बन गया था । दोहे का शब्दार्थ है - उक्त प्रकार हंस - हंसनी ने पय(दूध) धरने वाले की आशा पूर्ण की थी । उस साधक के हृदय में राम भी प्रकट हुये और मोती रूप रत्न भी प्राप्त हुये । उक्त प्रकार गुरु दोनों प्रकार से धन से रहित व्यक्ति को दोनों प्रकार के धन से संपन्न कर देते है । यही जगजीवनजी ने उक्त दोहे की कथा द्वारा समझाया है ।

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