रविवार, 13 अक्टूबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(प्र.दि.- ९/१६)

卐 दादूराम~सत्यराम सा 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
प्रथम दिन ~ 
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आं. वृ. - प्रति दिवस, सुख साधन कुछ काल ।
सखी किया कर अवश्यहि, होगी परम निहाल ॥९॥
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वा. वृ. - सो सुख साधन सखी मैं, जानत हूं कुछ नांहि ।
बता मुझे जिसके किये, शांति होय मन मांहि ॥१०॥
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आं. वृ. - सखी सभी ही सुखों का, साधन सज्जन संग ।
बैठ किया कर कछुक तूँ, लगे राम का संग ॥११॥
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वा. वृ. - ठीक सखी घर काम से, कुछ कुछ समय निकाल ।
बैठूंगी प्रति दिवस मैं, तेरे ढिंग कुछ काल ॥१२॥
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आं. वृ. - बैठेगी तो सहज ही, होगा लाभ ललाम ।
- दुख तेरे मिट जायँगे, सुधरेंगे सब काम ॥१३॥
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वा. वृ. - सखी आज ही कछुक तो, शिक्षा दे अभिराम ।
जिससे मेरा क्षुब्ध मन, प्राप्त करे विश्राम ॥१४॥
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कवि - श्रद्धा लख कर बाह्य की, आंतर युत उत्साव ।
प्रथम प्रणति करने लगी, हरि गुरु को सह भाव ॥१५॥
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आं. वृ. - ईश गणन का जगदाधारा, प्रणऊं प्रथम पूज्य भवसारा
बता सखी को यह गण राई, नहीं ब्रह्म् सखि आय न जाई ॥१६॥
अर्थ - जो गणों का ईश्‍वर, जगत का आधार तथा संपूर्ण विश्‍व का सार तत्व है, मैं उसे ही प्रथम प्रणाम करती हूँ। यदि तू उसे जानती है तो, बता वह कौन ? 
वाह्य वृत्ति - ‘‘हां, सखि ! मैं समझ गई, तुम सबसे पहले गणेशजी को प्रणाम कर रही हो।’’ 
आंतर वृत्ति - ‘‘नहीं, सखि ! मैंने तो, देवगण, दानवगण, मानवगण, पशुगण, पक्षीगण आदि गणों के स्वामी और जन्मादिक संसारी धर्मों से रहित परब्रह्म को ही प्रणाम किया है।’’
( क्रमशः )

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