शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

= ५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*जगत में आइ कर बिसार्यो है जगतपति,* 
*जगत कियो है सोई जगत भरत है ।* 
*तेरे चिंता निस दिन और ही परी है आइ,* 
*उद्यम अनेक भॉंति - भॉंति के करत है ॥* 
*इत उत जाइके कमाइ करि ल्याऊँ कछू,* 
*नेक न अज्ञानी नर धीरज धरत है ।* 
*सुन्दर* कहत एक प्रभु के बेसास बिन,* 
*बादि कै वृथा ही शठ पचि कै मरतु है ॥* 
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॥श्री हरि:॥ शिक्षाप्रद पत्र ~

सादर हरिस्मरण । आपका पत्र मिला । समाचार विदित हुए । आपकी शंकाओं का उत्तर क्रम से निचे लिखा जाता है - 
आपने ईश्वर का अस्तित्व नहीं होने का जो यह कारण बताया कि आज तक कोई उन तक नहीं पहुँच पाया, सो यह आप किस आधार पर लिख रहे हैं । उन तक पहुँचने के लिये वास्तविक खोज में लग जाने वालों में से बहुत-से- लोग वहाँ पहुँचे हैं और आज भी पहुँच सकते हैं । अत: आपका यह तर्क सर्वथा निराधार है । 
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आपने लिखा कि लाखों-करोड़ों वर्षों तक तपस्या करके भी पार नहीं पाया जा सकता । पर यदि कोई गलत रास्ते से प्रयास करे या किसी दूसरी वस्तु को पाने के लिये प्रयास करे और वह ईश्वर को न पा सके तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वरं गीतामें तो भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि ‘साधक पराभक्ति के द्वारा मुझको, मैं जो हूँ और जैसा हूँ तत्व से जान लेता है और फिर मुझ में ही प्रविष्ट हो जाता है(गीता अ० १८ श्लोक ५५)’ । तथा वे पहले भी कह आये हैं कि ‘पहले ज्ञान तपसे पवित्र हुए बहुत-से साधक मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं(गीता ४ । १०)’ । ‘इस ज्ञान को जानकर सभी मुनि लोग परम सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं इत्यादि(गीता १४ । १-२)’ । अत; आपका यह कहना कि कोई उसे नहीं जान सका, निराधार सिद्ध होता है । 
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उसका आदि, अन्त और मध्य न जानने की जो बात कही गयी है, वह तो उस तत्व को असीम और अनन्त बताने के लिये है । वेदों ने जो ‘नेति-नेति’ कहा है, उसका भी यही भाव है को वह जितना बताया गया है उतना ही नहीं है, उससे भी अधिक है । अत: इससे अभाव सिद्ध नहीं होता । 
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आप गंभीरता से विचार करें । वैज्ञानिक लोग जो प्रकृति का अध्ययन करके नये-नये आविष्कार कर रहे हैं, क्या वे कह सकते हैं कि हमने प्रकृति को पूर्णतया जान लिया है, अब कोई आविष्कार शेष नहीं रहा है ? यदि ऐसा नहीं कह सकते तो क्या इतने से मान लेना चाहिये कि उसका अस्तित्व ही नहीं है ? 
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बात तो यह है कि किसी भी असीम तत्व की सीमा कोई निर्धारित नहीं कर सकता । यदि कोई कहे कि मैं उसे पूर्णतया जान गया तो उस व्यक्ति का ऐसा कहना कहाँ तक उचित होगा ? और इस कसौटी पर असीम तत्व के अस्तित्व को अस्वीकार करना भी कहाँ तक युक्ति संगत है, इस पर भी आप विचार करें । 
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आपने लिखा कि जो है भी और नहीं भी है - ऐसी ईश्वर की व्याख्या है, सो ऐसी व्याख्या कहाँ है ? यह कौन कह सकता है कि ‘अमुक वस्तु नहीं है’, क्योंकि यह निश्चय करने वाला भी कोई सर्वज्ञ ही होना चाहिये । अमुक वस्तु है या नहीं; ऐसा संदेह तो कोई भी कर सकता है पर नहीं है यह कहने का किसी का भी अधिकार नहीं है । फिर ईश्वर के बारे में यह कहना कि वह नहीं है - सर्वथा अनुचित है । 
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ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, साकार और निराकार भी है - यह कहना ठीक है और सर्वथा युक्तिसंगत है । आपने लिखा कि ईश्वर कुछ नहीं है, केवल कल्पना है; क्योंकि सब कुछ का अर्थ कुछ नहीं अर्थात शून्य - होता है, सो ऐसी बात नहीं है; क्योंकि ईश्वर कल्पना से अतीत बताया गया है । गीता अध्याय ८ श्लोक ९ में उसे अचिन्त्य रूप कहा गया है । 
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आगे चलकर आपने लिखा कि - क्या जो चैतन्य रूप दिखता है यही ईश्वर है ? इसका उत्तर यह है कि जिस हलचल और शक्ति को लक्ष्य करके आपने चैतन्य की व्याख्या की है इसका नाम चेतन नहीं है । शब्द तो आकाश-तत्व का गुण है, शक्ति बिजली का गुण है । वेग वायु का गुण है । ये सभी जड़ तत्व हैं । इनमे कोई भी चैतन्य नहीं है । चैतन्य तो वह तत्व है, जो इन सबको जनता है और इनका निर्माण भी करता है । जो वस्तु निर्माण की जाती है, किसी के द्वारा संचालित होती है, वह चैतन्य कैसे हो सकती है, यदि चैतन्य की व्याख्या आप ठीक-ठीक समझ पाते तो सम्भव है आपको ईश्वर की सत्ता का कुछ अनुभव होता । मनुष्य को ईश्वर का पता लगाने के पहले यह सोचना चाहिये कि मैं जो ईश्वर की सत्ता है या नहीं इसका निश्चय करना चाहता हूँ, वह मैं कौन हूँ ? जिसमें जानने की अभिलाषा है और जो अपने-आपको तथा अपने से भिन्न को जानता है, प्रकशित करता है, वही चेतन हो सकता है । यह समझ में आ जाने पर आगे की खोज आरम्भ होगी ।
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आपने कल-कारखानों की बात लिखी, कोयले और पानी के मिश्रण की, उसकी शक्ति की बातों पर प्रकाश डाला, फिर बिजली की महिमा का वर्णन किया सो तो ठीक है, पर उनका आविष्कार करने वालों की महिमा की ओर आपका ध्यान नहीं गया । आप सोचिये, क्या वे कल-कारखाने बिना कर्ता के सहयोग के कुछ भी चमत्कार दिखा सकते हैं ? यदि नहीं तो विशेषता उनको बनाने और चलाने वाले की ही सिद्ध हुई । 
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आपने मानव-शरीर को पाँच तत्वों से हुआ बताया, यह तो ठीक है । शरीर तो सभी प्राणियों के पाँच तत्वों से ही बने है । पर पाँच तत्वों का समूह तो केवल मात्र यह दिखने वाला स्थूल शरीर ही है । मन, बुद्धि और अहंकार - ये तीन तत्व इसके अन्दर और हैं तथा इन सबको जानने और प्रकाशित करनेवाला एक इनका अधिष्ठाता संचालक भी है । उसकी ओर भी आपका ध्यान आकर्षित होना चाहिये । उसके बिना इन सब तत्वों का कोई भी चमत्कार हो ही नहीं सकता । वह कौन है ? - इस पर विचार कीजिये ।
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आगे चलकर आपने सूर्य, चन्द्र, तारा आदि के विषय में विज्ञान के आधार पर लिखा कि ये सब अपने-आप हो रहे हैं, परंतु आपने गहराई से विचार नहीं किया । करते तो आप यह भी समझ सकते कि कोई भी जड़ पदार्थ बिना किसी संचालक के बहुत काल तक नियमित-रूप से नहीं चल सकता । जितना भी वैज्ञानिक आविष्कार है - जैसे अणु बम, रेडियो, बिजली, और स्टीम से होने वाले काम, हवाई-जहाज आदि, क्या कोई भी यन्त्र अपने-आप बन जाता है या उसका संचालन अपने-आप हो जाता है ? यदि नहीं तो फिर ये सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, तारा आदि यन्त्र अपने आप कैसे बन गए और अपने-आप नियमित-रूप में कैसे संचालित होने लगे ?

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