शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

= च. त./११-१२ =


*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“चतुर्थ - तरंग” ११-१२)* 
**श्री दादूजी के अनन्त शिष्य होने लगे अपनी अपनी भावना से** 
**ध्यान सुमिरण के लिये दादूराम** 
ब्रह्म सिद्धान्त समाज भयो अति, 
होय गंभीर समाज सुरीने ।
सेवक गोविन्द भोजन ल्यावत, 
पाय प्रसाद हरिरस भीने । 
साँभर में सिकदार बुरो इक, 
स्वामी सुं वैर कियो मतिहीने । 
बात सुनी, घर बैठि विचारत, 
बूझत है - परचा किम दीने ॥११॥ 
ब्रह्म सिद्धान्त की महत्ता और गंभीरता जन समाज समझने लगा । सेवक गोविन्दराम स्वामीजी के लिये भोजन प्रसाद लाया करता, श्री दादूजी उसे हरि - अर्पण करके प्रसाद बना लेते । फिर ग्रहण करके हरि - रस में निमग्न हो जाते । साँभर का मुस्लिम शासक सिकन्दर श्री दादूजी की प्रतिष्ठा से द्वेष करता था । वह मतिहीन घर में बैठा - बैठा दुष्टता के विचार करता रहता । लोगों से पूछता रहता - क्या दादू फकीर ने तुम्हें कोई रचना - चमत्कार दिखाया ॥११॥ 
*सांभर सिकदार प्रसंग*
*सोरठा*
कोपै ज्यों सिकदार, त्यों स्वामी - महिमा अधिक । 
सठ घर करत विचार, कौन देश तें आय इत ॥१२॥ 
ज्यों - ज्यों स्वामीजी की महिमा शहर में बढती जाती, त्यों त्यों सिकदार कुपित होता रहता । वह शठ सोचता - यह फकीर इस शहर में कहाँ से आ गया ॥१२॥ 
(क्रमशः) 

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