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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/१*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
इसमें निरंजन को प्रणाम करने से मुक्त होना कहा है । वैसे ही भीष्म ने भी कहा है -
एकोऽपि कृष्णास्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म, कृष्ण प्रणामी न पुनर्भवाय ॥
उक्त श्लोक में कृष्ण शब्द परब्रह्म - निरंजन का ही बोधक है । कृष् - सत्तावाचक है और ण निवृत्ति वाचक है । दोनों के मिलने से अर्थ होता है सत्ता देने वाला और आनन्द स्वरूप । ऐसा परब्रह्म निरंजन ही है । परब्रह्म को एक बार प्रणाम करने से ही दश अश्वमेध यज्ञों के अवभृय(यज्ञान्त) स्नान के समान फल है । दश अश्वमेध करने वाला तो पुनः जन्मता है किन्तु निरंजन ब्रह्म को प्रणाम करने वाला पुनः नहीं जन्मता । पारंगतः - जन्मादि संसार से पार परब्रह्म को ही प्राप्त होता है । नमो नमो दो बार कहा है । इसका तात्पर्य मन वचन दोनों से प्रणाम करना और तीसरे का अध्याहार करने पर तन, मन, वचन से प्रणाम हो जाता है । पुनरुक्ति दोष नहीं है । कहा भी है -
हर्ष कर्ष अमर्ष पुनी, भय रु दीनता युक्त ।
स्तुति निन्दाअरु वाद में, दोष नहीं पुनरुक्त ।
अतः मंगल होने से पुनरुक्ति दोष यहां नहीं आता है । गुरुदेव और साधुओं को प्रणाम करना परब्रह्म प्राप्ति में तो सहायक है ही किन्तु मनु ने और भी फल बताया है, सो भी देखिये -
अभिवादन शीलस्य, नित्यंवृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम् ॥१२१ । अ.२, मनु ।
गुरुजनों को प्रणाम करने से और उनकी सेवा करने से - आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है ।
दृष्टांत - साधुओं को प्रणाम करने से मार्कण्डेय की आयु बढ़ी थी । मृकंड ऋषि ने पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या से शिवजी को प्रसन्न किया । शिव ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा । मृकंड ने पुत्र मांगा । शिव ने कहा - मूर्ख पुत्र दीर्घायु होगा और बुद्धिमान अल्पायु होगा । मृकंड ने बुद्धिमान् माँगा । मार्कण्डेय पुत्र हुआ । उसे पिता ने सिखाया बड़े पुरुषों को प्रणाम किया कर ।
एक दिन मार्कण्डेय ने यज्ञशाला में था कि उधर से सप्त ऋषि निकले । उनको देखकर मार्कण्डेय यज्ञशाला मे आकर उन सब के चरण छू छू कर प्रणाम किया । सबने दीर्घायु होने का वर दिया । तब वशिष्ठ ऋषि ने कहा - आप लोग जिसे चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दे रहे हैं, यह बालक तो अल्पायु है ।
तब सब ऋषि बालक को साथ लेकर ब्रह्मा के पास गये और कहा - हमारे वचन मिथ्या नहीं होने चाहिये । तब ब्रह्मा ने मार्कण्डेय को चिरंजीवी बना दिया था । अतः संतों को प्रणाम करने से प्राणी दीर्घायु हो जाता है । गुरुजनों की सेवा व प्रणाम करने से विद्या भी बढ़ती है ।
माता - पिता की सेवा से धर्मव्याध की ब्रह्मविद्या बढ़ी थी । यह कथा महाभारत के वन पर्व में प्रसिद्ध है । उस प्रसंग को धर्मव्याधगीता कहते हैं । यश, श्रवण भक्त का तथा भीष्म का बढ़ा था । सो भी प्रसिद्ध है । बल युधिष्ठिर का बढ़ा था । महाभारत युद्ध में शस्त्र चलने के समय आदि में युधुष्ठिर शस्त्र त्यागकर और हाथ जोड़कर कौरव सेना में भीष्मजी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और शल्य के पास जाकर प्रणाम करके बोला मैं आपसे द्वन्द्व युद्ध करूंगा, मुझे युद्ध विजय का आशीर्वाद दीजिये । तब चारों ने ही कहा था - हम युद्ध तो दुर्योधन की ओर से ही करेंगे किन्तु तुमने धर्म मर्यादा का पालन किया है, अतः विजय तुम्हारी ही होगी । फिर युधिष्ठिर की विजय ही हुई थी ।
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