卐 दादूराम~सत्यराम सा 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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प्रथम दिन ~
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जिहिं दर्शन से हिय हुलसावे,
नति संगति से क्लेश नशावे ।
क्या समझी सखि सुन्दर वामा,
नहिं सजनी ! मम गुरु धनरामा ॥१९॥
आं. वृ. - ‘‘जिनके दर्शन करने से स्रदय प्रसन्न होता है और संगति से सब दु:ख नष्ट हो जाते हैं। यदि तू समझी है तो, बता यह क्या है?’’
वा. वृ. - ‘‘हां सखि ! मैं समझ गई, उक्त बात तो सुन्दर स्त्री में घटती है।’’
आं. वृ. - ‘‘नहीं सखि ! ये तो मेरे गुरु प्रवर श्री स्वामी धनराम जी हैं। उनके दर्शन से मुझे बड़ा आनन्द प्राप्त होता है और संगति से सभी दु:ख नष्ट हो जाते हैं।
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वा. बृ. - सखि ! सद्गुरु के संग से, सुख हो, दु:ख नशाय ।
मैं भी तो चाहत यही, मुझको गुरु बतलाय ॥२०॥
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आं. वृ. - कामादिक दुर्गुण रहित, ईश भक्त शुचि संत ।
ज्ञान निष्ठ गुरु है वही, करे अविद्या अन्त ॥२१॥
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वा. वृ. - सखि । उक्त लक्षण सभी, भासत हैं तुझ मांहि ।
तुम ही मेरे गुरु हुये, इसमें संशय नांहि ॥२२॥
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अब तुम मुझ पर दया कर, प्रतिदिन ही कुछ काल ।
सद् शिक्षा देती रहो, हूंगी परम निहाल ॥२३॥
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अब मैं जाती हूं सखी, मम मन व्याकुल होय ।
कर प्रणाम झट दौड़कर, बाहिर आई सोय ॥२४॥
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कवि ~ बाह्य वृत्ति सहसा नहीं, स्थिर हो सब को ज्ञात ।
दौड़ - दौड़ कर विषय हित, नित विक्षेप उठात ॥२५॥
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श्रौत्रादिक के संग से, शब्दादिक पर जाय ।
थक कर फेरि सुषुप्ति में, दृष्टि कभी नहिं आय ॥२६॥
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इति श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता में प्रथम दिन वार्ता समाप्त: ।
( क्रमशः )
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