मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

= च. त./२०-१ =

*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“चतुर्थ - तरंग” २०-२१)* 
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*श्री दादूजी का सेवकों को समझाना*
दर्शन काज गये द्वय सेवक, 
यहँ मति आवहु - आप सुनाई । 
मैं जग की मरयाद तजी सब, 
निर्पख नाम निशान बजाई । 
जग व्यवहार चहे तुमको सब, 
मो हित लागि, नहीं दुख पाई । 
राज बुरो, तुमरो घर लूटत, 
सेवक ! तें घर में रहु भाई ॥२०॥ 
लोगो के बहकाने पर सिकन्दर ने आदेश निकाला फिर भी सेवक दर्शन करने पहुंच गये । स्वामीजी ने कहा - भाई ! यहाँ मत आया करो । मैंने तो जगत् व्यवहार की सब मर्यादा छोड़ दी है, निष्पक्ष होकर नाम का निशान बजाता रहता हूं । परन्तु तुम्हें तो सभी सांसारिक व्यवहार निभाने हैं । मेरे कारण दु:ख मत उठाओ । यहाँ का शासक दुष्ट व्यक्ति है । वह तुम्हारा घर लूट लेगा । अत: अपने घर में ही रहो ॥२०॥ 
जेतहिं द्रव्य हुवे, दंड दें हम, 
वित्त घटै, तुम पास रहाई । 
यों संकल्प लखाय कही फिर, 
छींत बचाय दिये दंड भाई ॥ 
एतहि दौरि सिताब जु आवत, 
बेगि चलो सिकदार बुलाई । 
बेगि गये चलि, देखि खिजे खल, 
द्यो तकसीर जो छींत बचाई ॥२१॥ 
सेवक बोले - हे स्वामीजी ! जब तक हमारे पास द्रव्य है, हम दण्ड भरते रहेंगे । जब बीत जायेगा, यहीं रह जायेंगे । सेवकों का यों दृढ़ संकल्प जानकर स्वामीजी ने कहा - अच्छी बात है, परन्तु अब आगे से छींत को सबके सम्मुख बँचवा कर ही दण्ड भरना । इतने में दौडते हुये सिकदार के सिपाही आ गये, और बोले - चलो, तुम्हे सिकदार साहिब बुलाते है । सम्मुख पहुँचने पर सिकदार उन पर क्रोध से खीजने लगा, और बोला - छींत - हुकुम के अनुसार अब दण्ड भरो ॥२१॥ 
(क्रमशः)

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