*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“चतुर्थ - तरंग” २०-२१)*
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*श्री दादूजी का सेवकों को समझाना*
दर्शन काज गये द्वय सेवक,
यहँ मति आवहु - आप सुनाई ।
मैं जग की मरयाद तजी सब,
निर्पख नाम निशान बजाई ।
जग व्यवहार चहे तुमको सब,
मो हित लागि, नहीं दुख पाई ।
राज बुरो, तुमरो घर लूटत,
सेवक ! तें घर में रहु भाई ॥२०॥
लोगो के बहकाने पर सिकन्दर ने आदेश निकाला फिर भी सेवक दर्शन करने पहुंच गये । स्वामीजी ने कहा - भाई ! यहाँ मत आया करो । मैंने तो जगत् व्यवहार की सब मर्यादा छोड़ दी है, निष्पक्ष होकर नाम का निशान बजाता रहता हूं । परन्तु तुम्हें तो सभी सांसारिक व्यवहार निभाने हैं । मेरे कारण दु:ख मत उठाओ । यहाँ का शासक दुष्ट व्यक्ति है । वह तुम्हारा घर लूट लेगा । अत: अपने घर में ही रहो ॥२०॥
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जेतहिं द्रव्य हुवे, दंड दें हम,
वित्त घटै, तुम पास रहाई ।
यों संकल्प लखाय कही फिर,
छींत बचाय दिये दंड भाई ॥
एतहि दौरि सिताब जु आवत,
बेगि चलो सिकदार बुलाई ।
बेगि गये चलि, देखि खिजे खल,
द्यो तकसीर जो छींत बचाई ॥२१॥
सेवक बोले - हे स्वामीजी ! जब तक हमारे पास द्रव्य है, हम दण्ड भरते रहेंगे । जब बीत जायेगा, यहीं रह जायेंगे । सेवकों का यों दृढ़ संकल्प जानकर स्वामीजी ने कहा - अच्छी बात है, परन्तु अब आगे से छींत को सबके सम्मुख बँचवा कर ही दण्ड भरना । इतने में दौडते हुये सिकदार के सिपाही आ गये, और बोले - चलो, तुम्हे सिकदार साहिब बुलाते है । सम्मुख पहुँचने पर सिकदार उन पर क्रोध से खीजने लगा, और बोला - छींत - हुकुम के अनुसार अब दण्ड भरो ॥२१॥
(क्रमशः)
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