卐 दादूराम~सत्यराम सा 卐
.
*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
प्रथम दिन ~
.
तारक मारक जिसमें भावा,
उसको प्रणाम सह उत्सावा ।
क्या समझती सखि! विष विकराला,
नहिं सखि ! येतो कृष्ण कृपाला ॥१७॥
अर्थ - आंतर वृत्ति - जिसमें तारने और मारने के भाव रहते हैं, मैं उसे ही सहर्ष प्रणाम करती हूं। सखि ! यदि तू समझी हो तो बता वह कौन है?
वाह्य वृत्ति - हां, सखि ! मैं समझ गई। यह तो भयंकर विष है। क्योंकि विष को सविधि खाय तो वह रोग निवृत्ति द्वारा रक्षा करता है, इससे तारक है। विधि रहित खाने से मारक (मारने वाला) होता है।
आंतर वृत्ति - नहीं, सखी ! ये तो सज्जनों के रक्षक और दुष्टों का नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्णजी हैं।
.
शान्त स्वरूप न वाद विवादू,
सज्जन पूजित नति तिहिं आदू ।
उपल मूर्ति समझी तव नादू,
नहिं सजनी ! ये तो श्री दादू ॥१८ ॥
आंतर वृत्ति - ‘‘जो शांत स्वरूप, वाद विवाद से रहित, सज्जनों द्वारा पूजित हैं, उन्हें ही मैं प्रणाम करती हूं।’’
वाह्य वृत्ति - ‘‘हां सखि! मैं तुम्हारे शब्द को समझ गई हूं। यह कोई पत्थर की मूर्ति होगी। क्योंकि उक्त लक्षण तो पत्थर की मूर्ति में ही घट सकते हैं।’’
आंतर वृत्ति - ‘‘नहीं सखि ! ये तो संत प्रवर दादू जी हैं। तूने अभी तक परम शांत संतों के दर्शन नहीं किये हैं। इसी से पत्थर की मूर्ति बता रही है।’’
( क्रमशः )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें