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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/७.१२*
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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/७.१२*
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*दादू सद्गुरु अंजन बाहिकर, नैन पटल सब खोले ।*
*बहरे कानों सुनने लागे, गूंगे मुख से बोले ॥७॥*
उक्त साखी के पूर्वार्ध के समान गुरु गीता में भी शिवजी ने पार्वती को कहा है -
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
*सद्गुरु पशु मानुष करे, मानुष तैं सिध सोइ ।*
*दादू सिध तै देवता, देव निरंजन होइ ॥१२॥*
उक्त साखी के सद्गुरु पशु मानुष करे इस अंश पर मनुष्य किसकी कहते है ! ऐसा प्रश्न उठने पर दृष्टांत द्वारा कहते है -
भोज नृपति को देख के, कन्या ढँक्यो न शीश ।
नृप पू़छ गुरु पै गयो, मनुष्य लक्षण बत्तीस ॥९॥
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राजा भोज की सवारी आ रही थी । नगर में एक पंडित की पुत्री अपने घर की छत पर नंगे शिर खड़ी थी । पंडित ने उसे कहा - बेटी शिर ढँक लो राजा आ रहे हैं । पुत्री - राजा होते तो ढंक लेती । पंडित - राजा ही हैं शिर ढँक लो । पुत्री - राजा होते तो अवश्य शिर ढँक लेती ।
इतने में राजा भी पास ही आ ही आ गये थे । हाथी पर बैठे थे । इससे लड़की की बात राजा ने सुन ली । दूसरे दिन राजा ने पंडित को बुलवाया और पू़छा - कहिये मैं राजा क्यों नही हूँ ? उस समय मैं छत्र, चंवर, सेना और सामन्तों आदि के सहित था, फिर भी मुझे राजा न समझने का क्या कारण है ? पण्डित - मैं तो आपको राजा ही मानता हूं । 'राजा नहीं है' यह वचन मेरी पुत्री का है, उससे पू़छ कर उत्तर दूँगा । राजा - अच्छा उसे पू़छकर आओ ।
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पण्डित ने घर आकर पुत्री से कहा - बेटी ! तुमने राजा को राजा नहीं समझा, उसका उत्तर राजा पू़छते हैं कि - मैं राजा क्यों नही हूँ ? पुत्री - राजा मुझे अपनी पुत्री के समान बुलवा लें, मैं आप ही उत्तर दे दूँगी । पंडित ने जाकर राजा को पुत्री की बात सुना दी । राजा ने कु़छ सैनिक और सवारी भेज कर बाई को बुलवाया और पू़छा - कहो बेटी ! मैं राजा कैसे नहीं हूँ । बाई बोली - इसका उत्तर तो मैं दे सकती हूँ किन्तु आपको उससे पूर्ण संतोष नहीं होगा । अमुक पर्वत के मध्य भाग में एक गुफा हैं । उसमें मेरे गुरुदेव रहते हैं । आप वहाँ जावे वे आपकी ठीक २ समझा देंगे । राजा ने मान लिया । बाई को घर भेज दिया ।
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पण्डित ने घर आकर पुत्री से कहा - बेटी ! तुमने राजा को राजा नहीं समझा, उसका उत्तर राजा पू़छते हैं कि - मैं राजा क्यों नही हूँ ? पुत्री - राजा मुझे अपनी पुत्री के समान बुलवा लें, मैं आप ही उत्तर दे दूँगी । पंडित ने जाकर राजा को पुत्री की बात सुना दी । राजा ने कु़छ सैनिक और सवारी भेज कर बाई को बुलवाया और पू़छा - कहो बेटी ! मैं राजा कैसे नहीं हूँ । बाई बोली - इसका उत्तर तो मैं दे सकती हूँ किन्तु आपको उससे पूर्ण संतोष नहीं होगा । अमुक पर्वत के मध्य भाग में एक गुफा हैं । उसमें मेरे गुरुदेव रहते हैं । आप वहाँ जावे वे आपकी ठीक २ समझा देंगे । राजा ने मान लिया । बाई को घर भेज दिया ।
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दूसरे दिन राजा बाई के बताये हुये स्थान पर गये । गुफा द्वार पर एक शिला लगी थी । राजा ने प्रार्थना की - मैं दर्शन करने आया हूँ कृपया दर्शन दें । संत - तु कौन हो ? भोज - में राजा हूँ । संत - राजा तो एक रामचन्द्र हुये हैं, यदि तुम रामचन्द्र हो या रामचन्द्र के समान तुम में लक्षण हैं तो शिला के हाथ लगाओ खुल जायगी । भोज ने हाथ लगाया किन्तु शिला नहीं हटी । यह देखकर राजापने का अभिमान तो नष्ट हो गया किन्तु ऐसे संत के दर्शन करे बिना लौटना तो उचित न होगा ।
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यह सोचकर पुनः प्रार्थना की - महाराज ! मुझे दर्शन तो दें । संत - तुम सत्य - सत्य कहो कौन हो ? राजा - सती(सत को धारण करने वाला) हूँ । संत - सती तो एक हरिश्चन्द्र हुआ है यदि तुम हिरश्चन्द्र हो या उनके समान लक्षण तुम में हैं तो शिला के हाथ लगाओ हट जायगी । हाथ लगाया किन्तु न हटी । फिर प्रार्थना की - भगवद् संत तो दयालु होते हैं, दया करो दर्शन दो । संत - भाई ! तुम मिथ्या क्यों बोलते हो ? सत्य - सत्य कहो कौन हो? राजा - क्षत्रिय हूँ । संत - क्षत्रिय तो अर्जुन हुआ है, यदि तुम अर्जुन हो या उनके समान लक्षण तुम में हैं तो शिला के हाथ लगाओ हट जाएगी । हाथ लगाया किन्तु नहीं हटी ।
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राजा ने पुनः प्रार्थना की - भगवन् ! संत तो क्षमा सागर होते हैं, कृपा करके दर्शन तो अवश्य दें । संत - भाई ! तुम दर्शन चाहते हो तो सत्य - सत्य क्यों नहीं बोलते हो, तुम कौन हो ? राजा - मनुष्य हूँ । संत - मनुष्य तो एक भोज है, यदि तुम भोज हो, या भोज के समान तुममें मानवता के लक्षण हैं तो शिला को हाथ लगाओ हट जायगी । अब की बार हाथ लगाते ही शिला हट गयी ।
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राजा के प्रश्न का उत्तर तो मिल गया था । दर्शन करके राजा लौट आया । उक्त कथा से ज्ञात होता है भोज में मानवता थी । मानवता बिना मनुष्य पशु तुल्य ही होता है । कहा भी है -
"साहित्य संगीत कला बिहीन साक्षात् पशु पुच्छ बिषाण हीन ।"
भतृहरि ।
"दीखत के लक्षण तो पशु के सब ही है ।"
सुन्दरदास ।
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किन्तु सद्गुरु उसे अपने उपदेश के द्वारा मानवता से संपन्न मनुष्य कर देते हैं । विद्वानों ने मानवता के लक्षण ३२ बताये हैं, सो भी देखिये -
मनहर -
सुकृत प्रमाण, प्राक्रम, कुल, रूप, क्रिया,
सज्जन, सुबुद्धि, संत, शीलव्रत धारी है ।
शस्त्रज्ञ, धर्मज्ञ, मितभुक, वशकाम,
निर्गुण सम्पन्न, सो तो नगरमझारी है ॥
विचक्षण, विनय, विश्वास, वन्दनीक, विद्या,
निरलोभ, शूर, दया, दान, उपकारी है ।
अल्पनिद्रा, इन्द्रियजीत, शुचि, सुप्रकाश, रति -
हरि गुरुदेव, माता - पिता भक्ति प्यारी है ॥१॥
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