बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

= १४ =



#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐
*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।* 
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥* 
*बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह ।* 
*दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥*
*स्वारथ सेवा कीजिये, ताथैं भला न होइ ।*
*दादू ऊसर बाहि कर, कोठा भरै न कोइ ॥* 
*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥*
*दादू सांई को संभालतां, कोटि विघ्न टल जांहि ।*
*राई मन बैसंदरा, केते काठ जलांहि ॥* 
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साभार : Vipin Tyagi ~ 

यह जपुजी साहिब की ३४ वीं पौरी की चौथी पोस्ट है जिसमें हम बाकी सूत्रों पर विचार करेंगें । 
तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥ 
तिन के नाम अनेक अनंत ॥ 
देहधारी आत्मा को जीवात्मा कहा जाता है । इन्सान को 'अशरफे-उल-मख्लूकात' या 'सृष्टि का सिरमौर' कहा जाता है । ये दुनिया सिर्फ निर्जीव शक्लों-पदार्थों का खेल नहीं है । इसमें अनन्त प्रकार के और अनन्त ढंगों से विचरने वाले चेतन जीव भी बस रहे हैं । वास्तव में धरती, पर्वत, सागर, वनस्पति, आदि सब वस्तुएँ और पदार्थ जीवात्मा के लिए पैदा किये गये हैं । पाँच तत्वों की कुल कायनात मनुष्य की सेवा सहायता के लिए पैदा की गयी है जिससे वह राम-नाम सुमिरन द्वारा प्रभु-प्राप्ति का अपना उद्देश्य पूरा कर सके । 
करमी करमी होइ वीचारु ॥ 
सचा आपि सचा दरबारु ॥ 
हमें यहाँ राम-नाम का सुमिरन द्वारा पिता-परमात्मा से मिलाप करने के लिए भेजा गया है, पर यह कार्य कोई बिरला ही कर पाता है । 
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गुरु तेग बहादुर साहिब कहते हैं: 
निसि दिनु माइआ कारने प्रानी डोलत नीत ॥ 
कोटन मै नानक कोऊ नाराइनु जिह चीति ॥२४॥ 
(SGGS 1427) 
संसार में माया के पुजारी अनेक हैं, परमात्मा का पुजारी कोई-कोई है । जो लोग परमात्मा के नाम को भूलकर मनचाहे खेलों नें व्यस्त और मस्त है, उनके हर कर्म का हिसाब रखा जाता है और उन्हें कर्म का फल दिया जाता है । राम-नाम की कमाई करनेवाले के लिए धरती 'धर्मसाल' है। मनमर्जी करनेवालों के लिए यह कर्म-भूमि या 'करमा संदडा खेत' है, जिसमें 'आपे बीजि आपे खाहु' और 'नानक हुकमी आवहु जाहु' का नियम लागू होता है । 
उस सच्चे दरबार में स्त्री-पुरुष, जाति-पाँति, रँग-रूप, कौम, मज़हब, मुल्क, अमीर-गरीब, विद्धत्ता-निरक्षरता आदि के आधार पर नहीं, कर्मों के आधार पर जीव की परख की जाती है । उस दरबार में सच्चा न्याय होता है । वहाँ न तो कोई कटौती होती है और न ही कोई बढोतरी की जाती है । यह समझना निपट अज्ञानता है कि हमें मालिक के दरबार में इसलिए बख्श दिया जाएगा क्योंकि हम किसी ख़ास धर्म, जाति, सम्प्रदाय या देश के रहने वाले हैं । यह समझना भी धोखा है कि हमें दरगाह में इसलिए बख्श दिया जाएगा क्योंकि हम किसी सन्त-महात्मा, गुरु-पीर, अवतार-पैगम्बर आदि में विश्वास है । 
'तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल' को 'करमी करमी होइ वीचारु' से मिलाकर पढने से यह संकेत मिलता है कि यह धरती कर्म-भूमि है । यहाँ इनसान कर्मों की खेती बोता और काटता है । 
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गुरु साहिब कहते हैं: 
जैसा बीजै सो लुणे जो खटे सो खाइ ॥ 
अगै पुछ न होवई जे सणु नीसाणै जाइ ॥२॥ 
तैसो जैसा काढीऐ जैसी कार कमाइ ॥ 
जो दमु चिति न आवई सो दमु बिरथा जाइ ॥३॥ 
इहु तनु वेची बै करी जे को लए विकाइ ॥ 
नानक कमि न आवई जितु तनि नाही सचा नाउ ॥४॥५॥७॥ 
(SGGS 730) 
जैसे बीज बोओगे वैसा ही काटना पडेगा । जैसे कमाओगे वैसा ही खाओगे । अगर राम-नाम का संग करोगे तो धर्मराज कर्मों का हिसाब नहीं लेगा । जैसे कर्म करोगे वैसा ही नाम कमाओगे । अगर तुम्हारी साँस बिना राम-नाम के सुमिरन के ली जा रही है तो बेकार जा रही है । इससे तो शरीर को बेच देना उचित है अगर कोई इसे खरीदे । वह शरीर किसी काम का नहीं है जो राम-नाम का सुमिरन नहीं करता है । 
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बाबा फरीद कहते हैं: 
फरीदा लोड़ै दाख बिजउरीआं किकरि बीजै जटु ॥ 
हंढै उंन कताइदा पैधा लोड़ै पटु ॥२३॥ 
फरीदा गलीए चिकड़ु दूरि घरु नालि पिआरे नेहु ॥ 
चला त भिजै क्मबली रहां त तुटै नेहु ॥२४॥ 
भिजउ सिजउ क्मबली अलह वरसउ मेहु ॥ 
जाइ मिला तिना सजणा तुटउ नाही नेहु ॥२५॥ 
(SGGS 1379) 
अगर किसान कीकर के बीज बोता है और अंगूर की फसल चाहता है तो कैसे संभव है ? अगर वह ऊन कातता है और बदले में रेशमी कपडे चाहे तो कैसे संभव है ? रास्ता कीचड से भरा है और प्रियतम का घर बहुत दूर है । अगर मैं बाहर जाता हूँ तो मेरा कम्बल भीग जायेगा । अगर मैं घर में रहता हूँ तो दिल टूट जाएगा । मेरा कम्बल परमात्मा के प्यार से भीग गया है । में तो अब अपने प्रियतम से मिलने ही जाऊंगा जिससे मेरा दिल फिर कभी ना टूटे । 
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संसार के अधिकतर प्राणी कर्म भी अपनी मनमर्जी के करने चाहता है और फल भी अपनी मनमर्जी के लेना चाहता है । यह किसी तरह भी सम्भव नहीं है । जो मिर्चों की फसल बोता है, मिर्चे ही पायेगा और जो सेब का पौधा लगाएगा वह सेब खाने का हक़दार हो जाएगा । 
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संसार में हर समय और हर जगह अनेक रावण, दुर्योधन और हिरण्यकशिपु दिखाई देते हैं । सच तो यह है कि हम सब ही दिल के किसी कोने में रावण, दुर्योधन और हिरण्यकशिपु हैं । जब पराई स्त्री पर नज़र रखते हैं तो रावण हैं, जब पराया अधिकार मारना चाहते हैं तो दुर्योधन हैं और जब मैं के वश होकर अपने रचियता को भूल जाते हैं, उस कर्ता के हुक्म से निडर हो जाते हैं, मालिक की हस्ती से इनकार कर देते हैं और स्वयं प्रभु की पूजा करने की बजाय अपनी पूजा करवाना चाहते हैं तो हिरण्यकशिपु हैं । हम ज़ुल्म, ज़बरदस्ती, अन्याय आदि जो कुकर्म करते हैं, इस भ्रम के अधीन करते हैं कि हमें किये हुए कर्मों की सजा नहीं मिलेगी । हर कर्म का हिसाब देना पड़ता है । इस अज्ञानता को जितना ज़ल्दी छोड़ दिया जाए उतना ही अच्छा है । 
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गुरु साहिब ने जीव को सावधान किया है कि कर्म और फल का नियम अटल है । हमारा प्रारब्ध हमारे ही पूर्व में किये कर्मों का ही फल है और पुनर्जन्म, आवागमन या चौरासी का चक्कर में भटकने का कारण ही किये हुए कर्म हैं । साथ ही आपने समझाया कि पूण्य, पापों का नाश नहीं कर सकते । दोनों ही जीव को आवागमन से बाँध कर रखते हैं । जीव को आवागमन के चक्कर से छुडाने वाला और पुण्य-पाप, सुख-दुःख के द्वैत से सदा के लिए मुक्ति देनेवाला साधन परमात्मा का नाम है । 
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गुरु साहिब समझा रहे है कि झूठी माया में डूबे रहने वाले व्यक्ति (कुड़ीआर) किये हुए कर्मों के अनुसार नरकों-स्वर्गों में चले गए और राम-नाम की कमाई करने वाले गुरुमुख जीवन की बाज़ी जीत कर निजघर पहुँच गए ।

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