बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(द्वि.दि.- १/४)

卐 दादूराम~सत्यराम सा 卐

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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
द्वितीय दिन ~ 
कवि - वाह्य वृत्ति दिन दूसरे, प्रपंच से पा षास । 
पंच विषय से विमुख हो, आई आंतर पास ॥१॥ 
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कर प्रणाम बोलत भई, सखी सुना कुछ बात । 
बचन तुम्हारे सुने से, होता हिय कुशलात ॥२॥ 
नाचत रोत बजावत गावे, 
जिसमें नाना रंग दिखावे । 
क्या समझी सखि ! नाटक ख्याला, 
नहिं सखि, यह तो जंग जंजाला ॥३॥ 
आं. वृ. - ‘‘जिसमें नाचना, रोना, गाना, बजाना, आदि नाना भाव दिखाई देते हैं। यदि तू समझी हो तो बता यह क्या है? 
वा. वृ. - हां सखि ! मैं समझ गई हूं, यह नाटक का खेल है।’’ 
आं. वृ. - ‘‘नहीं सखि ! यह तो जगत जंजाल है। इसमें लगी रहने से ही तुझे खेद होता है, इसमें आसक्ति मत कर।’’ 
बाहिर भीतर एकहि रंगा, 
जिनका सेवन सबको चंगा । 
क्या समझी सखि किसमिस दाखा, 
नहिं सखि, संत मृषा तू भाखा ॥४॥ 
आं. वृ - जिनका बाहर भीतर एक ही रंग रहता है और जो सेवन करने से सभी को आनन्दप्रद सिद्ध होते हैं। यदि तू समझी है तो बता ये कौन हैं? 
वा. वृ. - ‘‘सखी मैं समझ गई हूं, ये तो किसमिस दाख हैं। 
आं. वृ. - ‘‘नहीं सखी ! तू तो मिथ्या बोल रही है। यह तो संतजन हैं। क्योंकि संतजन ही बाहिर भीतर समान भाव से रहते हैं। ऐसे संतों के संग से ही तेरा जन्मादिक संसार क्लेश समाप्त होगा।’’ 
( क्रमशः )

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