卐 दादूराम~सत्यराम सा 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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द्वितीय दिन ~
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कवि - वाह्य वृत्ति दिन दूसरे, प्रपंच से पा षास ।
पंच विषय से विमुख हो, आई आंतर पास ॥१॥
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कर प्रणाम बोलत भई, सखी सुना कुछ बात ।
बचन तुम्हारे सुने से, होता हिय कुशलात ॥२॥
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नाचत रोत बजावत गावे,
जिसमें नाना रंग दिखावे ।
क्या समझी सखि ! नाटक ख्याला,
नहिं सखि, यह तो जंग जंजाला ॥३॥
आं. वृ. - ‘‘जिसमें नाचना, रोना, गाना, बजाना, आदि नाना भाव दिखाई देते हैं। यदि तू समझी हो तो बता यह क्या है?
वा. वृ. - हां सखि ! मैं समझ गई हूं, यह नाटक का खेल है।’’
आं. वृ. - ‘‘नहीं सखि ! यह तो जगत जंजाल है। इसमें लगी रहने से ही तुझे खेद होता है, इसमें आसक्ति मत कर।’’
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बाहिर भीतर एकहि रंगा,
जिनका सेवन सबको चंगा ।
क्या समझी सखि किसमिस दाखा,
नहिं सखि, संत मृषा तू भाखा ॥४॥
आं. वृ - जिनका बाहर भीतर एक ही रंग रहता है और जो सेवन करने से सभी को आनन्दप्रद सिद्ध होते हैं। यदि तू समझी है तो बता ये कौन हैं?
वा. वृ. - ‘‘सखी मैं समझ गई हूं, ये तो किसमिस दाख हैं।
आं. वृ. - ‘‘नहीं सखी ! तू तो मिथ्या बोल रही है। यह तो संतजन हैं। क्योंकि संतजन ही बाहिर भीतर समान भाव से रहते हैं। ऐसे संतों के संग से ही तेरा जन्मादिक संसार क्लेश समाप्त होगा।’’
( क्रमशः )
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