सोमवार, 4 नवंबर 2013

दादू- राम नाम में पैसि कर


दादू- राम नाम में पैसि कर, राम नाम ल्यौ लाइ ।
यह इकंत त्रय लोक में , अनत काहे को जाइ ॥ ७९ ॥
प्रसंग - जगजीवन आंमेर में भौंरे कूवे जाय ।
भजन करत भरियो नहीं, गुरु दादू समझाय ॥ १२ ॥
दादूजी के शिष्य पंडित जगजीवन जी आमेर नरेश के परियों के बाग में एक कूप है, जिस में भौंरे ( तहखाने ) बने हुये हैं और उनमें जाने के लिये पैंडियां भी बनी हुये हैं । गरमी में पानी नीचा रहता है, तब वे खाली रहते है और वर्षा ऋतु में पानी से भर जाते है । जगजीवनजी उस भौंरे कूपके भौंरे में बैठकर भजन करते थे वर्षा ऋतु में मावठा सरोवर भरते ही सब कूपों में पानी ऊंचा चढ़ने से जागजीवनजी के भजन करने के स्थान में पानी भर जाता । इससे मालियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है, इस कूप में पानी ऊंचा क्यों नही चढ़ता । उसने दादूजी के पास जाकर उक्त कथा सुनाकर कहा- पानी ऊंचा न चढ़ने से हमारे बैलों को बहुत कष्ट होता है । दादूजी ने कहा- वे मेरे को प्रणाम करने आयेंगे तब उनको मैं समझा दूंगा फिर वे भौरे में नहीं बैठैंगे । जगजीवन आये तब दादूजी ने उक्त साखी सुनाकर उनको समझा दिया था । फिर वे उस भौंरे कूप के भौंरे में नहीं गये । और पानी ऊंचा चढ़ गया । यह उक्त साखी की प्रसंग कथा है ।
दृष्टांत - गये भाजि वशिष्टजी, छोड़ सु यह ब्रह्माण्ड ।
रचि कुटीर संकल्प की, बाझ हृदय बिन भांड ॥ १३ ॥(बाझ=रहित)
एक दिन वशिष्ट ऋषि अपने आश्रम में भजन कर रहे थे । किसी कारण से उनके भजन में विघ्न हो गया । तब उन्होंने इस ब्रह्मांड के बाहर जाकर संकल्पमय कुटीर रची और उसमें बैठकर भजन करने लगे । किसी कार्यवश कुटीर से बाहर गये थे । लौटकर आये तो उस में एक दूसरे सिद्ध को भजन करते देखा और कहा - यह तो मेरी कुटीर है । सिद्ध - मैं भजन करता हूँ मेरी है । दोनों में विवाद हुआ । दोनों ब्रह्मा के पास गये । ब्रह्मा ने कहा - हृदय से बाहर के स्थानों में तो विघ्न आने से भजन में हानि होती ही है । फिर वशिष्ट पुनः अपने आश्रम में आकर ब्रह्म स्वरुप में मन को विलीन करके भजन करने लगे थे ।
दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि ।
हरि सुख एकै पलक का, ता सम कहा न जाइ ॥ ८० ॥
दृष्टांत- विश्वामित्र वशिष्ट के , अड़बी पड़ी विशेष ।
शिव ब्रह्मा हरि पच रहे, न्याय निबेरा शेष ॥ १४ ॥
एक समय विश्वामित्र सेन सहित शिकार को बन में गये थे । वशिष्ट के आश्रम के पास पहुंच गये । वशिष्ट ने सेना सहित उनका इच़्छानुसार आतिथ्य किया । विश्वामित्र ने अपने गुप्तचरों से पता लगवा लिया कि ऐसे पदार्थ इनके पास कहां से आये । तब ज्ञात हुआ कामधेनु की पुत्री नन्दनी इन के पास है । उसी ने प्रदान किये हैं । विश्वामित्र ने नन्दनी को मांगा । वशिष्ट - वह तो हमारी होमधेनु है नहीं दे सकते । विश्वामित्र ने बल से लेना चाहा । तब नन्दनी द्वारा रचित सेना और वशिष्ट के ब्रह्म दंड से विश्वामित्र हार गया । इससे क्षात्र बल को धिक्कार देकर ब्रह्मबल प्राप्त करने को तपस्या करनेलगा । बहुत तपस्या करने के बाद ब्रह्मादि से कहा - मुझे ब्रह्मऋषि मानो । ब्रह्मा ने कहा - वशिष्ट तुमको ब्रह्मऋषि कह देंगे तब सब आपको ब्रह्मऋषि मान लेंगे । विश्वामित्र वशिष्ट के पास शस्त्र धारण करके जाते थे इससे वशिष्ट इनको आइये राजऋषि ही कहते थे । इस ईर्ष्या से विश्वामित्र ने वशिष्ट के सौ पुत्र भी मरवा दिये थे ।
फिर एक रात्रि को वशिष्ट को मारने के लिये शस्त्र धारण करके गये थे । पहले उनकी कुटीर के पी़छे बैठकर वशिष्ठ और अरुंधती की बातें सुनने लगे । आधी रात को चन्द्रमा उगा उसे देखकर अरुंधती ने कहा - चन्द्रमा का कैसा प्रबल तेज है । वशिष्ट बोले - विश्वामित्र का तेज चन्द्रमा से भी प्रबल है । यह सुनकर विश्वामित्र का क्रोध शांत हो गया । वे शस्त्र त्यागकर वशिष्ट के पास गये तब वशिष्ट ने कहा - आइये ब्रह्मऋषि । विश्वामित्र - आपने पहले मुझे ब्रह्मऋषि क्यों नहीं कहा । वशिष्ट - आप शस्त्र धारण करके आते थे । अतः शस्त्रधारी तो राज-ऋषि ही होते हैं । आज दोनों का मेल हो गया । विश्वामित्र ने कहा - आप मेरे भोजन करने पधारें । वशिष्ट गये । भोजन कराकर विश्वामित्र ने तीस हजार वर्ष की तपस्या का फल दक्षिणा में दिया । फिर वशिष्ट ने भी विश्वामित्र को भोजन के लिये बुलवाया और लवमात्र सत्संग का फल दक्षिणा में दिया । विश्वामित्र ने कहा - मैंने आपको तीस हजार वर्ष की तपस्या का फल दिया था और आपने मुझे लवमात्र सत्संग का फल दिया है । वशिष्ट - तीस हजार वर्ष की तपस्या के फल से लवमात्र सत्संग का फल अधिक है । विश्वामित्र ने कहा - नहीं तीस हजार वर्ष की तपस्या का फल अधिक है । विवाद हो गया तब ब्रह्मा के पास गये तो ब्रह्मा ने विष्णु के पास भेज दिया । विष्णु ने शंकर के पास भेज दिया । शंकर ने शेषजी के पास भेज दिया । शेषजी ने कहा - पृथ्वी के भार से मैं विकल हूं, पृथ्वी को मेरे शिर से ऊंची उठा दें फिर मैं आप लोगों का न्याय कर दूंगा । विश्वामित्र ने पृथ्वी से कहा - तीस हजार वर्ष तप के फल से शेषजी के शिर से ऊंची उठ जा किन्तु नहीं उठी । तब वशिष्ट ने कहा - लवमात्र सत्संग के फल से ऊंची उठजा । कहते ही उठ गई तब न्याय हो गया । विश्वामित्र भी मान गये । अतः सत्संग का फल सर्व सुखों से श्रेष्ठ है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें