卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्थ दिन ~
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सखि ! इक इक पर पड़ता जाई ।
पराधीन हो अति दुख पाई ।
क्या समझी पटछल पर हाथी,
नहिं सखि ! कामी नर तिय साथी ॥१३॥
आं. वृ. - “एक एक के ऊपर पड़ता है और परतंत्र होकर दुखी होता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “हाथी पटछल पर पड़के दुखी होता है ।’’ (वन में हाथी फँस सके ऐसा गढ़ा बना कर उसे पतली लकड़ियों और पत्तों से छापकर थोड़ी-थोड़ी मिट्टी डाल के पृथ्वी-सी बना देते हैं । उसके मध्य भाग में कागज की एक हथिनी रख देते हैं । इसी को पटछल कहते हैं । हाथी हथिनी पर पड़ता था तब गढ़े में पड़ कर फँस जाता था फिर उसे पकड़ कर ग्राम में ले आते थे ।)
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह स्त्री का साथ न छोड़ने वाला कामी मनुष्य है । ऐसे कामियों की दुर्दशा ही होती है । तू कामी मनुष्यों से सदा दूर ही रहना । वे भयंकर विष से भी बुरे होते हैं ।’’
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इक का शब्द सुनत सखि एका,
बोलत है प्रति शब्द अनेका ।
समझी वारिद मोर सयानी,
नहिं, जिज्ञासु संत विज्ञानी ॥१४॥
आं. वृ. - “एक का एक शब्द सुनकर दूसरा अनेक शब्द बोलता है । बता वे कौन हैं ?’’
वा. वृ. - “बादल और मयूर हैं । बादल की गर्जना सुनकर मोर बारंबार बोलता है ।’’
आं. वृ. - “नहिं, वे तो जिज्ञासु और ज्ञानी संत हैं । जिज्ञासु जब प्रश्न करता है तब ज्ञानी संत अपनी नाना युक्ति उक्तियों से उसका समाधान करते हैं । तुझे भी कोई शंका हो तो ज्ञानी संत से पूछना । वे यथार्थ ही उत्तर देंगे ।’’
वा. वृ. -
सखी तुम्हारी बात को, मानत हूं मैं सत्य ।
कुछहि तुम्हारे संग से, लगी जानने तथ्य ॥१५॥
सखी ! स्रदय की कृपणता, होय गई है दूर ।
अब तो पर हित कार्य मैं, करन चहूं भरपूर ॥१६॥
(क्रमशः)
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