शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

कछु न कहावे आपको २/३२

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/३२*
कछु न कहावे आप को, सांई को सेवे ।
दादू दूजा छाड़ि सब, नाम निज लेवे ॥३२॥
उक्त साखी पर दृष्टांत - 
चार द्वार पर देत हो, करके नीचे नैन ।
कहो कहां से सीखिया, ऐसी विधि का देन ॥५॥
एक सेठ कमाने में अति चतुर थे किन्तु पुण्य कार्य कु़छ भी नहीं करते थे । एक दिन एक बालक भिक्षु ने उनकी हवेली के द्वार पर भिक्षा मांगी । उसकी आवाज सुनकर झरोखे में बैठी हुई सेठ की पुत्रवधू ने कहा - यहां कु़छ नहीं मिलेगा, हम भी बासी खाते हैं । 
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बालक तो चला गया किन्तु उक्त वचन उसकी सासु ने सुन लिया और अपने पति को कहा । आपकी पुत्रवधू माँगने वालों को कहती है कि हम तो बासी खाते हैं । सेठ ने पुत्र वधू को कहा । तब उसने कहा - मैंने बासी खाते हैं, यह तो कहा था किन्तु उक्त कथन से मेरा तात्पर्य अन्न बासी खाते हैं यह नहीं है । सेठ - फिर तुम्हारा क्या भाव था ? 
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पुत्रवधू - मेरा भाव तो यह था कि हमारे सेठजी ने पूर्व जन्म में जो पुण्य किया था, वही खाते हैं । अब तो धर्म - पुण्य कु़छ भी नहीं करते हैं । पूर्व की कमाई बासी ही है । सेठ - क्या पूर्व किया हुआ ही मिलता है ? पुत्रवधू - ऐसा ही है । कर्ण ने सोना दान किया था, अतः उसे सोना ही मिला था । वैसे ही जो देता है वही उसे मिलता है, घर में पड़ा हुआ कु़छ भी नहीं मिलता । 
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उक्त वचन सुनकर सेठ ने कहा - अच्छा तुमको पांच सेर भुने हुये चणे प्रतिदिन मिल जाया करेंगे, तुम अपना नित्य नियम करके बाँट दिया करो । बाई - बहुत अच्छा । कु़छ दिन के बाद पुत्रवधू ने सासू से कहा - एक दिन श्वशुरजी के लिये रसोई मैं बनाना चाहती हूँ । आप उनसे कहैं । सासु ने अपने पति से कहा । उसने मान लिया । 
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पुत्र वधू ने सुन्दर रसोई बनाकर इस ढंग से रख दी कि वह ठंडी नहीं हो सके । फिर एक बिना नमक डाले ही चणे की रोटी बनाई और एक कटोरी में नमक मिरच पीस कर रख दिया । आसन बिछा दिया और चौकी लगादी । सेठ आये तब चणे की रोटी थाल में रखकर चौकी पर रख दी । नमक मिरच की कटोरी भी चौकी से अलग रखदी औेर जल का लौटा हाथ लम्बा करके ले सकें इतना दूर रख दिया । सेठ ने उस रोटी का ग्रास लिया वह ठंडी हो गई थी । ग्रास गले में अटक गया । 
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हाथ लम्बा करके लौटा का पानी पीकर ग्रास को गले से उतारकर अपनी पत्नी को बकने लगा - इससे कहा दिया और तूने सुन लिया । यह कैसी रसोई बनाई है ? अभी मेरे प्राण निकल जाते । तब पुत्रवधू ने हाथ जोड़कर कहा - आप बैठिये मैंने रसोई बहुत अच्छी बनाई है । ऐसा कहकर झट थाल चौकी पर रख दिया । उसे देखकर तथा उसकी सुगन्ध से सेठ को शान्ति मिली । तब सेठ ने पू़छा - जब तूने यह रसोई बनाई थी तब वह रोटी मुझे क्यों परोसी थी ?
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पुत्रवधू ने कहा - भगवन् आप चणों का दान करते हैं. नमक मिरच भी नहीं देते तथा प्याऊ भी नहीं लगाते । अतः आगे आपकी खाने के लिये केवल चणे ही मिलेंगे । मैंने तो नमक मिरच और पानी भी रक्खा था । पर आपके दिये बिना ये भी आपको नहीं मिलेंगे । आपको आगे दुःख न हो ऐसा ही हमको करना चाहिये । मैंने यह सोचकर कि सेठ साहब का चणा खाने का थो़डा अभ्यास अब से ही पड़ जाय तो आगे उन्हें अधिक दुःख नहीं होगा । इसीलिये आपको वह रोटी परसी थी । 
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ये वचन सेठ के हृदय में लग गये । वह भोजन करके दुकान पर गया और कारीगरों को बुलाकर बोला - अतिशीघ्र चार द्वार वाला एक ऐसा मकान बनाओ कि उसके बीच में बैठा हुआ मनुष्य चारों द्वारों से देता रहे । उन लोगों ने बहुत शीघ्र बना दिया । फिर सेठ उस के बीच में बैठकर एक द्वार पर बना हुआ भोजन, दूसरे पर सूखा समान, तीसरे पर बर्तन और चौथे पर वस्त्र प्रतिदिन सवा पहर दिन चढ़े तक नियम से देने लगा । चाहे कोई कितनी ही बार ले, सेठ देता ही रहता था । 
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जब वह उक्त प्रकार भगवत् प्रीत्यर्थ देने लगा तब भगवान् भी भिक्षु के रूप में उसकी परीक्षा लेने आ गये । और चारों ही द्वारों पर बारंबार लेकर समान की गठरियां बाँध ली । फिर भी माँगते ही गये किन्तु सेठ ने उनको कु़छ भी नहीं कहा । तब भगवान् उसके सामने खड़े होकर बोले - 
चार द्वार पर देत हो, करके नीचे नैन ।
कहो कहां से सीखिया, ऐसी विधि का देन ॥
तब सेठ ने कहा - 
ईश्वर सबको देत है, देते हैं दिन रैन ।
नाम हमारा लेत हैं, तातैं नीचे नैन ॥६॥
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सेठ का उक्त वचन सुनकर वे भिक्षु चतुर्भुज रूप में बदल गये । भक्त को अपना दर्शन कराकर कृतार्थ कर दिया । उक्त प्रकार अपने को किसी बड़े पद आदि से कहलाने की इच्छा न करके भगवान् का भजन करना चाहिये । तब ही भगवान् शीघ्र ही कृपा करके अपना लेते हैं । मन में कोई भी प्रकार की वासना हरि दर्शन में बाधक है । उक्त दृष्टांत के दोनों पद्य चम्पारामजी के रचित नहीं है । उन्होंने इन को प्राचीन लिखा है ।

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