卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्थ दिन ~
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सखी ! एक बलवान अपारा,
करता सहज काम वह सारा ।
तव नौकर तुझको सुख दाता,
नहिं, उद्योग जगत विख्याता ॥७॥
आं. वृ. - “एक अति बली है और अनायास ही सब काम कर देता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “तुम्हारा नौकर होगा ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो जगत् विख्यात उद्योग है । उद्योग से सभी काम हो जाते हैं । तू भी उद्योग का आश्रय लेकर अपने कल्याण का साधन करेगी तो शीघ्र ही आत्म स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त हो जायेगा ।
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सखि ! इक के वश सब ही देखा,
उससे बचा कोउ नहिं पेखा ।
है यह पेट जान गई प्यारी,
नहिं सखि ! काल सर्व संहारी ॥८॥
आं. वृ. - “सब संसार एक के वश हुआ देखा जाता है, उससे कोई भी नहीं बच पाता । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. “पेट है ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! वह तो सर्व का नाशक काल है । तू उस काल को प्रतिक्षण सन्मुख देखा कर । ऐसा करने से कोई भी पाप कर्म तुझसे नहीं हो सकेगा ।’’
(क्रमशः)
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