मंगलवार, 19 नवंबर 2013

राम जपें रुचि साधु को ४/१८०

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/१८०* 
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*राम जपें रुचि साधु को, साधु जपे रुचिराम ।*
*दादू दोनों एक टक, यहु आरम्भ यहु काम ॥१८०॥*
दृष्टांत साखी के पूर्वार्ध पर - 
नारद पू़छा विष्णु से, आप भजत हो काहि ।
जती सती मम भक्त बलि, मोहमर्द अति आहि ॥१३॥
एक दिन नारदजी भगवान् विष्णु के दर्शन करने वैकुण्ठ में गये तब विष्णु जी ध्यानस्थ थे । नारदजी ने ध्यान तोड़ना उचित नहीं समझा । बिना प्रणाम करे ही एक ओर बैठ कर भजन करने लगे । ध्यान खुला तब प्रणाम करके पु़छा - भगवन् ! सभी आपका ध्यान करते हैं फिर आप काहि(किसका) ध्यान कर रहे थे ?
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विष्णु - मैं मेरे भक्त यति, सती, और ज्ञान बल से युक्त ज्ञानियों का ध्यान करता हूं । नारद - इस समय किसका कर रहे थे ? विष्णु - मृत्युलोक में मेरा महान् भक्त राजा मोहमर्द आहि(है) उसका और उस की रानी, पुत्रवधू तथा दासी का करता था । नारद ने सोचा - राज्य करने वाला राजा कैसे मोहमर्द(मोहजित) हो सकता है? उसकी परीक्षा लेनी चाहिये । 
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फिर नारद तत्काल मोहमर्द को राजधानी में आये और राजा के बाग में घोड़े पर चढे हुये राजा के पुत्र को देखा और अपनी योग माया से उसे माया के सिंह से मरवा दिया । फिर बाग में एक सुन्दर जल का कूप था । उस पर आकर बैठ गये । राजा उसी कूप का जल पीते थे । राजा की विश्वास पात्र दासी जल ले जाने वालों के साथ आती थी । आज कूप पर बैठे हुये नारदजी को दासी ने प्रणाम करके कहा - भगवन् ! यहां का राजा संतो का भक्त है, राजसभा में पधारिये ।
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नारद - आज राजसभा में जाना उचित नहीं है । दासी - क्यों ? नारद - तुम को पता नहीं आज राजा के २५ वर्ष के पुत्र को सिंह ने मार दिया है । इससे राजा तो महान् शोक - सागर में डूबा होगा । दासी - राजा को कु़छ भी शोक नहीं है । राजा ज्ञानी हैं । वे समझते है कुटुम्ब तो मार्ग की प्याऊ तथा नौका के पथिकों के समान है । जैसे प्याऊ पर पानी पीकर और नौका से नदी पार करके सब अपने मार्ग जाते हैं, वैसे ही पुत्रादि ऋण संबन्ध से आते हैं । जो लेने वाला होता है, वह लेकर चला जाता है । और जो देने वाला होता है वह देकर चला जाता है । घर तो रैन बसेरा है । तब वृक्ष शोक करता है क्या ? वैसे ही राजा न जन्मने से हर्ष करते हैं और न मरने से शोक करते हैं । आप तो राजसभा में पधारें । 
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नारद - जाओ तुम तो दासी हो तुम को क्या पता है ? राजा अवश्य शोक में डूब रहा है । फिर दासी जल वालों के साथ चली गई । महल में पहुँचने पर रानी ने कहा - आज इतनी देर कहां लगाई ? दासी - कूप पर एक संत बैठे थे उनसे बात करने से देर हो गई । रानी - संत को यहां क्यों न लाई ? दासी - यह प्रार्थना करने में ही तो देर हो गई । वे नहीं आये ।
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फिर नारद ने सोचा - दासी तो मोहजित ही निकली किन्तु राजा को तो अवश्य शोक होगा ही । फिर वे राजसभा के द्वार पर गये । द्वारपाल ने राजा को सूचना दी । राजा आये और स्वागत सत्कार से सभा में लेजा कर दिव्य आसन पर बैठा कर कहा - सेवा बताइये । नारद - आपका को इस समय क्या सेवा बतायें । आपके पुत्र को सिंह ने मार दिया है, अतः आप तो शोक में निमग्न है । राजा - मुझे कोई शोक नहीं है । पुत्र ऋण संबन्ध से आया था । ऋण देकर वा लेकर चला गया उसका क्या शोक है ? मैं आप को एक पुत्र की कथा सुनाता हूं, ध्यान से सुनिये । 
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एक राजा के पुरोहित ने अपने पुत्र को विद्वान बना कर उसके विवाह की बात चलाई । तब वह नट गया किन्तु अन्त में माता पिता के परम आग्रह से उसे स्वीकार करना ही पड़ा । जब फेरे हो रहे थे तब तीन फेरे लेकर वह रुक गया । तब सबने कहा - क्यों रुके ? उसने कहा - अगर यह प्रतिज्ञा करे कि - पति का कहना सदा मानूंगी तो आगे फेरा लूंगा । सबने कहा - यह तो उचित ही है कर लो । बाई ने प्रतिज्ञा करली । 
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फिर उसके पुत्र हुआ तो पति ने मांग लिया । प्रतिज्ञा के अनुसार देना ही पड़ा । वह उसे वन में रख कर आने लगा तो बच्चे ने आवाज दी - मैं तुममें पांच मोहर मांगता हूँ, वे अवश्य लूंगा । तब ब्राह्मण ने पांच मोहर देकर कहा - बस । उसने कहा - अब जा सकते हो । 
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फिर दूसरा पुत्र हुआ उसे भी उक्त प्रकार वन में छोड़कर आने लगा तो उसने आवाज दी - तुमने मेरे कंठों का रक्त पान किया था, अतः मैं तुम्हारे कंठों का रक्त पान करे बिना नहीं छोडूंगा । ब्राह्मण ने चाकू से किंचित कंठ के चीरा लगाकर दो चार बिन्दु उसे दी और उसने पीकर कहा - अब जा सकते हो । 
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फिर तीसरा पुत्र हुआ उसको भी उक्त प्रकार ही लेकर वन में रख के आने लगा तब उसे ने आवाज दी । मुझे रख कर नहीं जाइयें मैं तो आपका कर्ज देने आया हूं, उसको देकर आप ही चला जाऊंगा । ब्राह्मण उसे ले आया । उसका पालन पोषण किया और ब्राह्मणी को कहा - इसमें ऐसे संस्कार डालो कि खाने पीने की वस्तु को छोडकर यह किसी से कु़छ भी नहीं ले । 
ब्राह्मणी ने वैसे ही उसे सिखा दिया । जब वह १० वर्ष का हुआ तो राजा की रानी ने महल में बुलाया और खिला पिला कर कु़छ धन देने लगी किन्तु उसने नहीं लिया । तब किसी ने कहा - यह खाने-पीने की वस्तु छोड़कर और कु़छ नहीं लेता । तब दो लाडुओं में दो - दो रत्न दबाकर उसके हाथों में दिये वह उन को लाकर अपनी माता को दिया और जाकर सो गया । 
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उसके पिता आये और पू़छा - लड़का कहां है ? माता ने कहा - आज राजमहल में जीम आया है और सो गया है । पिता ने जाकर देखा ते वह मरा पड़ा था । ब्राह्मण ने ब्राह्मणी को कहा - क्या लाया था । उसने लाडू दिखाये, ये लाया था । ब्राह्मण ने लाडू तोड़े तो रत्न निकले उनको देख कर ब्राह्मण समझ गया कि कर्ज चुका कर चला गया है । यह कथा सुनाकर राजा बोला - महाराज पुत्र तो उक्त प्रकार लेने देने वाले आते हैं । उनका मैं क्या शोक करुंगा ?
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दूसरी कथा - राजा बोला - महाराज कु़छ पुत्र सुख दुःख देने वाले भी आते हैं, वे सुख दुःख देकर चले जाते हैं । इस विषय को आपकी एक कथा सुनाता हूँ, आप ध्यान से सुनें । दो साधुओं में परस्पर अति प्रेम था, और दोनों की ही तीर्थ करने में अधिक रुचि थी । तीर्थ करते - करते दोनों के साथ ही शरीर छूट गये और कर्म की कुटिल गति से दोनों श्वान योनि में साथ ही उत्पन्न हुये । इस योनि में भी दोनों का अति प्रेम रहा । 
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एक समय पूर्व संस्कार के बल से दोनों ने विचार किया - तीर्थ करने चलें किन्तु मार्ग के कुत्तों का भय है । फिर विचार किया - अपने ग्रामों में न जाकर ग्रामों के बाहर बाहर चलेंगे । चल पड़े किन्तु भूख लगने पर एक ग्राम के बाहर एक वट वृक्ष था । उसके नीचे बैठ कर विचार किया - भोजन करने ग्राम में ही चलना होगा । जो पहले खाकर आ जाय वह वट के नीचे बैठा रहे । दूसरे के आ जाने पर दोनों साथ ही आगे चलेंगे । 
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एक कुत्ता एक सज्जन के घर गया । उसने रोटी थाली में परसी और जल का लोटा लाने गया था पीछे से उक्त कुत्ता उस थाली की रोटी खाने लगा । उस सज्जन ने देखकर विचार किया - रोटी अब मेरे काम की तो नहीं रही है अतः इसे आराम से खाने दूं । रोटी खाने पर उस सज्जन ने उसे पानी भी पिला दिया । फिर कुत्ता वट के नीचे आकर बैठ गया और दूसरे कुत्ते की प्रतिक्षा करने लगा ।
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दूसरा कुत्ता एक ऐसी दुकान में घुसा जिस में एक कुतिया प्रतिदिन कु़छ खा ही जाती थी । दुकानदार उसे देख भी नहीं पाता था उक्त कुत्ते की घुसते ही दुकानदार ने उसे देख लिया और एक मोटे कपड़े में पंसेरी डालकर उसकी कमर में मारी उसमे उसकी कमर टूट गयी । वह पैरों को घसीटता घसीटता सायंकाल वट के पास आया तब दूसरा कुत्ता वट के नीचे से दौड़ कर आया और पू़छा - कमर कैसे टूटी ? 
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तब उसने उक्त कथा सुनाकर कहा - मैं तो यहाँ ही शरीर छोड़कर मुझे दुःख देने वाले का पुत्र होकर उसको दुःख दूंगा । तब दूसरे ने कहा - मैं भी यहां ही शरीर छोड़कर मुझे सुख देने वाले को सुख दूंगा । प्रथम कुत्ता उक्त सज्जन के पुत्र हुआ और उस सज्जन को बहुत सुख प्रदान किया ।
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दूसरा उक्त दुकानदार का पुत्र होकर उसे नाना दुख देने लगा । बचपन में एक दिन गोद में खड़ा होकर पिता की आंख में अंगुलि मार कर उसे कांणा कर दिया । कु़छ बडा हुआ तो घर के बाहर खड्डा खोदने लगा । एक दिन दुकान से आ रहा था । अंधेरा था खड्डे में पैर पड़ जाने पर वह लंगडा हो गया । इत्यादि दुःख उसने बहुत ही दिये । 
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महाराज ! ऐसे पुत्रों के लिये क्या शोक किया जाय । शोक करना तो अज्ञान ता चिन्ह है । आप ने अपना साधन भजन छोड़ कर यहां आने का क्यों कष्ट किया है ? जाइये मुझे कोई शोक नहीं है । नारद ने देखा, राजा भी मोहजित ही है । किन्तु पुत्र की माता को तो अवश्य शोक होगा ही । ऐसा विचार करके नारद अन्तःपुर में आकाश मार्ग से उतरकर रानी के कमरे के द्वार पर गये । 
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रानी ने उनका स्वागत किया । फिर कहा - आपने अति कृपा की है, जो दर्शन दिया है । सेवा बताइये ?
नारद - तुमको क्या सेवा बतावें तुमको तो महान् शोक ने घेर रखा है । तुम्हारे पुत्र को सिंह ने मार दिया है । ऐसे समय पर तुमको सेवा बताना अनुचित है । रानी - मुझे कु़छ भी शोक नहीं है । पुत्र तो ऋण संबंध से होते हैं । ऋण लेकर वा देकर चले जाते हैं । 
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इस विषय में मैं आपको एक कथा सुनाती हूँ सुनें - एक राजा की राजधानी में एक संत आये थे । राजा उनके दर्शन सत्संग के लिये उनके पास जाता था और साथ राजा का छोटा पुत्र भी जाता था । जब संत वहां से जाने लगे तो राजा के पुत्र ने कहा - मैं भी संतों के साथ ही जाऊंगा । राजा और रानी ने बहुत समझाया किन्तु उसने अपना हट नहीं छोडा । 
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तब राजा ने एक पोले दंडे में रत्न भरकर उसेक पेचदार डँट लगाकर पुत्र को देकर कह - इसमें रत्न हैं । जब आवश्यकता हो तो एक रत्न निकालकर बेच देना और आनन्द से रहना तथा जब इच्छा हो तब लौट आना । फिर संत के साथ चल दिया । एक दिन एक नगर में बाजार के बीच एक धर्मशाला रूप में तिवारा था । उसमें रात को ठहरने के लिये आसन लगाया और सामने एक दुकान थी । 
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लड़के ने कहा - दंडा दुकान में रख दें प्रातः यह दुकान खोलगे तब ले लेंगे । संत ने कहा - ठीक है । लड़के ने दुकान वालों को कहा - यह हमारा दंडा तुम दुकान में रख लो प्रातः दुकान खोलोगे तब हम ले लेंगे । दुकानदार ने कहा - लाओ रख दो वैश्य ने हाथ में लिया तो बहुत बोझ देखकर तथा दुकान में रखने का कारण सोचकर वैश्य समझ गया कि इसमें कु़छ है, रख दिया । 
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दुकान के पीछे ही दुकानदार का घर था और घर से दुकान में घुस सके ऐसी एक बारी भी थी । रात्री को उस बारी से दुकान में आकर दंडे को खोलकर उसके रत्न निकालकर उसमें कंकर भर दिये, और पेचदार ढँकन लगाकर वहां ही रख दिया । प्रातः आया तब लड़के ने दंडा मांगा । वैश्य ने दे दिया । फिर काशी पहूंचे तो लड़के ने अपने पंडे को बुलाकर कहा - एक दिन काशी के जो भी धर्मार्थ जीमने वाले हैं उन सबको जिमाना है । पंडे ने कहा - ठीक है । राजकुमार - कितने रुपये लगेंगे बतादो और ले जाओ । पंडा - आपके रुपये कहां जाते है ? पीछे हिसाब करने पर एक साथ ही ले लेंगें । पंडा तो चला गया ।
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फिर राजकुमार ने दंडा खोलकर देखा तो उस में कंकर निकले तब राजकुमार समझ गया कि दुकानवाले ने रत्न निकालकर कंकर भरे हैं किन्तु मैं उसे से सब ले लूंगा । फिर संत जी को कह कर कहा - काशी को निमंत्रण दिया है । संत - पिता से और रुपये मंगवाकर जिमा देना । किन्तु उसने नहीं माना । संत उस वैश्य के ग्राम में गये तो वैश्य इनके पास आया और सेवा भी करने लगा । 
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एक दिन संत ने कहा - तेरी क्या इच्छा है ? वैश्य ने कहा - और तो सब आनन्द है किन्तु पुत्र नहीं है । संत - पुत्र तेरे हो जायगा । फिर सेठानी के गर्भ रह गया तब वैश्य ने संत को कहा - अब आप यहां ही रहें । आप की इच्छानुसार बगीची बना देता हूँ और सब प्रकार की सेवा भी करता रहूंगा । संत रह गये पुत्र हो गया । पुत्र होने के उपलक्ष में दानादि भी बहुत दिया और अच्छा उत्सव भी मनाया । संत उसकी सेवा से प्रसन्न थे । अतः पैसा खर्च होने पर लड़का मर जायगा तब सेवा भी यह नहीं करेगा । 
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यह सोचकर वैश्य को कहा - लड़के का विवाह मत करना । सेठ ने सेठानी को कहा - तब वह बोली - विवाह अवश्य करुंगी । अब मोडे का कहना मैं नहीं मानूंगी । विवाह किया । उसमें भी बहुत धन खर्च किया । विवाह करके लड़के ने कहा - हमारे लिए मैं चाहूँ वैसी हवेली बनाओ तुम्हारे इस मकान में मैं नहीं रहूँगा । वैश्य ने अपने मकान के सामने चौक था । बीच में कु़छ भूमि छोड़कर लड़के के कहने के अनुसार ही भवन बना दिया । 
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तैयार होने पर लड़का उसे देखने के लिये गया और ऊपर छत से गिर कर मर गया । उसकी स्त्री भी दौड़ी और वह भी वह गिरा था वहां से गिरकर मर गई । दोनों की स्मारक छत्री दोनों हवेलियों के बीच में बनाई । उसे देख - देख अब सेठ सेठानी रोने लगे । पैसा सब खर्च हो गया और अब व्याज में रोना भी रोज ही होता रहता था । 
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फिर रानी ने कहा - महाराज ! पुत्र तो ऐसे होते हैं । इस विषय की भी मैं आपको एक कथा सुनाती हूँ सुनो, एक कुम्हार के पुत्र हुआ । वह उसे बहुत कष्ट देता था और कुम्हार पुत्र के राग मैं सब भोगता था । एक दिन कुम्हार चाक चला रहा था और उसका वह पुत्र उसके कंधे पर बैठा हुआ उसके लातें मार रहा था और शिर के केश भी खेंच रहा था । एक उच्च कोटि के संत वहां आ गये और लड़के की चेष्टा देखकर ध्यान किया और जान गये कि यह इस कुम्हार का शत्रु है, एक दिन कुम्हार को मारेगा । 
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संत हंसे तो बच्चे ने अंगुली हिलाई कि आप कुम्हार को यह नहीं कहना उस अंगुली की छाया देखकर कुम्हार को भी संशय हो गया कि इसने अंगुली क्यों हिलाई । संत से पू़छा - संत ने कहा - यह तेरा शत्रु है और एक दिन तेरे को मारेगा । कुम्हार - कैसे बचू ? संत - अभी इसे घोर वन में छोड़ आ । वहां इसको व्याघ्रादि खा जायेंगे तो बच जायगा । कुम्हार उसे वन में छोड़कर आने लगा तब उसने कहा - संत की कृपा से बच गया नहीं तो मैं तुझे अवश्य ही मारता । 
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यह कह कर रानी ने कहा - पुत्र तो ऐसे होते हैं । आपने अपना साधन क्यों छोड़ा है ? आप तो जाकर भजन करो । संसार तो ऐसे ही चलता है । नारद ने समझा, रानी भी मोहजित है । किन्तु राजकुमार की पत्नी को तो अवश्य शोक होगा ही ।
फिर नारद पुत्रवधू के कमरे पर पहूँचे । उसने स्वागत सत्कार किया और सेवा के लिये प्रार्थना की । नारद - बेटी ! इस समय तुम क्या सेवा कर सकती हो ? तुम्हें पति मृत्यु का शोक दबा रहा है । 
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पुत्रवधू - मुझे कोई शोक नहीं है । शरीर तो नष्ट होने के लिये ही बनता है । उनका मेरा वियोग एक दिन तो होता ही आज ही हो गया तो क्या ? आगे होता तो क्या ? दो पर्वतों के बीच एक नदी होती है, उसमें एक लकड़ा एक से और दूसरा स्स्दूसरे से पड़ता है और फिर दानों साथ चलते हैं तथा फिर किसी कारण से अलग - अलग हो जाते है, वैसे ही हमारा संयोग - वियोग हुआ है । इससे क्या शोक करना है फिर भी संयोग हो सकता है । 
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संसार में तो ऐसा ही होता है । आपने अपना भजन साधन क्यों छोड़ा है ? आप तो जाओ और भजन करो । नारद ने सोचा - ये चारों ही भगवन् के कथानुसार मोहजित है फिर नारद ने पुत्र को जीवित कर दिया और वहां से रम गये । अतः उक्त प्रकार के भक्तों का भजन भगवान् भी करते है अर्थात् उनके योग - क्षेम आदि का ध्यान रखते हैं ।

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