卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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षष्ठम दिन ~
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सखी ! एक घटती ही जावे,
उसका अन्त सहज ही आवे ।
प्रात: की छाया मैं जानी, नहिं,
दुर्जन की प्रीति सयानी ॥७॥
आं. वृ. - ‘‘एक घटती ही जाती है और सहज ही उस का अंत भी हो जाता है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘प्रात:काल की छाया है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो दुर्जनों की प्रीति है। दुर्जन की प्रीति घटती ही है और कुछ काल में शांत भी हो जाती है। तू दुर्जनों के प्रीति कभी भी न करना। क्यों कि अन्त में दुर्जन प्रीति परम दुख-दायिनी ही होती है।
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आवत जिसमें उसे जलावे,
कोउ विज्ञ हो बचने पावे ।
है यह पावक मैं पहचानी,
नहिं, सखि ! चिन्ता सत्य बखानी ॥८॥
आं. वृ. - ‘‘जिसमें आवे उसे ही जलाती है और उससे कोई विरला ही बच पाता है। बता वह क्या है?”
वां. वृ. - ‘‘अग्नि है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! मैं सत्य कहती हूं। यह चिन्ता है। जब चिन्ता हृदय में आती है तब सभी का हृदय जलने लगता है। कोई विरले ज्ञानी संत का ही हृदय चिन्ता की जलन से बचता है। तू अपने हृदय में चिन्ता को स्थान नहीं देगी तभी आनन्द में रह सकेगी।
(क्रमशः)
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