卐 सत्यराम सा 卐
८८. (श्री दादू वाणी)
दादू दास पुकारे रे, सिर काल तुम्हारे रे, सर सांधे मारे रे ॥टेक॥
जम काल निवारी रे, मन मनसा मारी रे, यहु जन्म न हारी रे ॥१॥
सुख नींद न सोई रे, अपना दुख रोई रे, मन मूल न खोई रे ॥२॥
सिर भार न लीजी रे, जिसका तिसको दीजी रे, अब ढ़ील न कीजी रे ॥३॥
यहु औसर तेरा रे, पंथी जाग सवेरा रे, सब बाट बसेरा रे ॥४॥
सब तरुवर छाया रे, धन जौबन माया रे, यहु काची काया रे ॥५॥
इस भ्रम न भूली रे, बाजी देख न फूली रे, सुख सागर झूली रे ॥६॥
रस अमृत पीजी रे, विष का नाम न लीजी रे, कह्या सो कीजी रे ॥७॥
सब आतम जाणी रे, अपणा पीव पिछाणी रे, यहु दादू वाणी रे ॥८॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे लोगों ! हम तुमको पुकार कर कह रहे हैं कि काल तुम्हें लक्ष्य बनाकर, रात - दिन रूप धनुष बाण लेकर तुम्हें मार रहा है । तुम अपने मन - बुद्धि को बहिरंग से अन्तर्मुख करके परमेश्वर के नाम - स्मरण द्वारा यमराज को हटाओ । इस मनुष्य जन्म को व्यर्थ नहीं खोना । परमेश्वर के स्मरण बिना, मोह रूप निद्रा में सुखपूर्वक नहीं सोना । अपना जन्म - मरण रूपी दुःख या परमेश्वर की अप्राप्ति रूप दुःख से रुदन करना । हे मन ! सबका कारण रूप जो यह मनुष्य देह है, इसको नाम - स्मरण के बिना वृथा नहीं गँवाना । परमात्मा से विमुख होकर सिर पर पाप रूप बोझा नहीं उठाना । यह मनुष्य देह जिस परमेश्वर का दिया हुआ है उसी के, निष्काम कर्मों द्वारा, इसको समर्पण करना । इस काम में अब देर नहीं लगाना । यही अपने आपका उद्धार करने का तेरा समय है । हे पथिक ! अब मोह रूप निद्रा से जवानी अवस्था में ही सचेत होकर परमेश्वर का नाम स्मरण कर । सब लोग आने - जाने के मार्ग पर बस रहे हैं और यह सब धन, यौवन, माया तो वृक्ष की छाया के समान चंचल है और तेरा शरीर कच्चे घट के समान नाशवान है । इन सबको देखकर सत्यता के भ्रम में परमेश्वर को नहीं भूल जाना । यह सम्पूर्ण संसार रूपी बाजी मिथ्या है, इसको सत्य जानकर राजी नहीं होना । सुख - सागर तो केवल परमेश्वर की भक्ति है । निष्काम नाम - स्मरण रूपी रस को पीना । संसार के विषय - भोगों का किंचित् मात्र भी चिन्तन नहीं करना । यह परमेश्वर ने सत् शास्त्र और सतगुरु ने चेतावनी उपदेशों द्वारा बताया है, इसी को करना । और सब आत्माओं को एकरूप जानकर मुखप्रीति का विषय परमेश्वर को निज आत्म - स्वरूप करके जानना । यही परिचय - सिद्ध मुक्त पुरुषों की वाणी है ।
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साभार : Gyan-Sarovar(ज्ञान-सरोवर) ~
स्वर्ग के राजा इन्द्र की पदवी को प्राप्त करके भी प्राणी पुनः जन्म प्राप्त करता है.....
कथा ~ एक समय ऋषि मार्कण्डेय बंगाल की खाड़ी में तप कर रहा था। इन्द्र को पता चला तो सोचा कही मेरी इन्द्र की पदवी को प्राप्त ने कर ले। इसका व्रत भंग कराना चाहिए। इन्द्र ने एक ऊर्वशी को भेजा। वह सुन्दर ऊवर्शी सर्व शृंगार(आभूषण आदि पहन कर) करके ऋषि मार्कण्डेय जी के सामने जाकर नाचने लगी। इन्द्र ने अपनी सिद्धी शक्ति से उस क्षेत्र का वातावरण सुहावना बसन्त ऋतु जैसा कर दिया तथा गुप्त बाजे बजा दिए। ऊर्वशी ने सर्व राग गाए बहुत प्रकार के नाच नाचे। मार्कण्डेय ऋषि आधी आँखों को खोले हुए सर्व कौतुक देखते रहे। कोई गति विधि नहीं की। हार कर ऊर्वशी निःवस्त्र हो गई।
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तब मार्कण्डेय ऋषि बोले हे बेटी ! हे माई ! तू किस उद्देश्य से यह सब कर रही है। तब ऊर्वशी बोली हे मार्कण्डेय ऋषि पता नही आप की योग समाधी किस स्थान पर है आप मेरे ऊपर आसक्त नहीं हुए। इस बनखण्ड(वन के इस भाग) के सर्व तपस्वी तो मेरे रूप को देखते ही जैसे दीपक पर पतंग गिर कर नष्ट हो जाते हैं ऐसे अपनी साधना नष्ट कर बैठे। तब मार्कण्डेय ऋषि बोले मैं जिस ब्रह्म लोक में समाधी दशा में ऊर्वशीयों के नाच देख रहा था वहाँ पर नाचने वाली स्त्रियाँ इतनी सुन्दर हैं कि तेरे जैसी स्त्रियाँ तो उनके पैर धोने अर्थात् सेवा करने वाली सात सात नौकरानीयाँ हैं। तूझे क्या ददेखूं । तेरे से कोई और सुन्दर हो तो उसे भेज।
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तब ऊर्वशी बोली हे मार्कण्डेय ऋषि ! इन्द्र की पटरानी(मुख्य स्त्री) मैं ही हूँ। मेरे से सुन्दर स्त्री स्वर्ग लोक में नहीं है। आप एक बार मेरे साथ इन्द्र लोक मे चलो। नहीं तो मुझे सजा मिलेगी।
मार्कण्डेय ऋषि बोले, इन्द्र मरेगा तब किसे पति बनाएगी ?
ऊर्वशी बोली मैंने ऐसी भक्ति कमाई की है कि मैं चौदह इन्द्रों के शासन काल तक इन्द्र की मुख्य स्त्री के रूप में सुख भोगती रहूँगी।
भावार्थ है कि इन्द्र अपना ७२ चतुर्युग का समय पूरा करके मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। अन्य इन्द्र पदभार सम्भालेगा। उस की मुख्य स्त्री मैं ही रहूँगी मेरा नाम शची है। इस प्रकार मैं चौदह इन्द्र भोगूंगी।
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मार्कण्डेय ऋषि बोले वे चौदह इन्द्र भी मरेंगे तब तू क्या करेगी ?
ऊर्वशी बोली जितने इन्द्र मुझे भोगेंगे वे मृत्यु के पश्चात् पृथ्वी लोक में गधे बनेंगे तथा मैं गधी बनूंगी। ऐसा विधाता का विधान है ।
मार्कण्डेय ऋषि बोले ! मुझे किसलिए उस लोक में ले जाना चाहती है जिस लोक का राजा भी गधों का शरीर धारण करता है ?
उर्वशी ने कहा ! मैं अपनी इज्जत रखने के लिए आप को इन्द्रलोक में चलने के लिए कह रही थी। इन्द्रलोक में कहेंगे तू हार कर आई है?
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मार्कण्डेय ऋषि बोले ! तू चौदह इन्द्रों से भोग विलास(सैक्स) करेगी तो तेरी इज्जत कहाँ है। प्रतिव्रता अर्थात् इज्जतदार स्त्री तो एक पति तक ही सीमित रहती है। मरने के पश्चात् तू गधी बनेगी फिर भी अपनी इज्जत से डरती है। चौदह खसम करेगी तो तू आज भी गधी है।
इतनी बात सुनकर शर्म के मारे ऊर्वशी का चेहरा फीका पड़ गया तथा वहाँ से चली गई। उसी समय इन्द्र आया।
इन्द्र बोला हे महर्षि मार्कण्डेय जी ! आप जीते हम हारे। चलिए आप मेरे वाली इन्द्र की गद्दी प्राप्त कीजिये ।
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मार्कण्डेय ऋषि बोले ! रे रे इन्द्र क्या कह रहा है? मेरे लिए तो इन्द्र की पदवी कोवै(काग) की बीठ(टटी) के समान है। एक समय मैं ब्रह्मलोक(महास्वर्ग) में जा रहा था। वहाँ पर अनेकों इन्द्रों ने मेरे चरण लिए। हे इन्द्र ! तू इस पदवी को त्याग दे। मैं तुझे ऐसी भक्ति विधि बताऊँगा जिससे तू ब्रह्म लोक(महास्वर्ग) में चला जाएगा।
इन्द्र बोला हे ऋषि जी ! अब तो मुझे इन्द्र का राज्य करने दो फिर कभी देखूंगा आप वाली भक्ति को। यह कह कर इन्द्र चला गया।
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एक दिन मार्कण्डेय ऋषि एक चिट्टियों की पंक्ति का निरीक्षण कर रहे थे। इन्द्र उनके पीछे खड़ा हो गया । बहुत देर तक मार्कण्डेय ऋषि बैठे-२ चिट्टियों की पंक्ति को देखते रहे तब इन्द्र ने पूछा हे ऋषि जी इन चिट्टियों को इतने ध्यानपूर्वक किस लिए देख रहे हो ?
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मार्कण्डेय ऋषि बोले ! हे इन्द्र ! मैं यह देख रहा था कि कौन सी चिट्टी कितने बार इन्द्र की पदवी पर रही है। इन्द्र को आश्चर्य हुआ तथा पूछा हे ऋषि जी ! क्या ये चिट्टियाँ भी कभी इन्द्र रही हैं?
मार्कण्डेय ऋषि बोले ! हाँ इन चिट्टियों में एक चिंट्टी ऐसी है जो केवल एक बार इन्द्र बनी है शेष तो कई-२ बार इन्द्र की पदवी को प्राप्त हो चुकी है। इन्द्र को बहुत आश्चर्य हुआ।
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मार्कण्डेय ऋषि बोले इन्द्र अब भी कर ले ब्रह्मलोक की भक्ति। इन्द्र ने फिर वही शब्द दोहराए कि फिर कभी देखुंगा अभी तो स्वर्ग का राज्य करने दो। जबकि इन्द्र को पता है कि इन्द्र की पदवी का समय पूरा होने के पश्चात् गधे की योनि में जाएगा। परन्तु विषयों का आनन्द छोड़ने को मन नहीं करता।
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इसी प्रकार पृथ्वी पर भी यदि किसी व्यक्ति को थोड़ा सा भी सुख है, वह कुछ व्यसन करता है। शराब पीता है अन्य नशीली वस्तुओं का प्रयोग करता है। यदि व्यसन नहीं करता है उसके घर में वर्तमान पुण्यों के प्रभाव से सुख है। यदि वह परमात्मा की भक्ति नहीं करता है। उसे कोई सन्त, भक्त कहे कि आप परमात्मा का नाम जाप किया करो। गुरु धारण करो। वह कहता है कि फिर कभी देखेंगे। उसे फिर कहा जाता है कि जो परमात्मा का भजन नहीं करते मृत्यु के पश्चात् पशु-पक्षी की योनियों में शरीर धारण करना पड़ता है।
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