卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्दश दिन
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नष्ट होत कुल तब अति फूले,
ताहि लखे सो सुख में झूले ।
फूल पलाश सखी ! मैं जानी,
परम विवेक न तू पहचानी ॥२१॥
आ. वृ. - “एक अपना कुल नष्ट होने पर फूलता है और उसे जो देखता है वह भी प्रसन्न होता है । बता वह कौन है ?”
वा. वृ. - “यह तो पलाश का पुष्प है । सब पत्ते झड़ जाते हैं तब फूलता है और उसका रंग सुन्दर होने से, फूले हुये पलाश को देखकर के सभी का मन प्रसन्न होता है ।”
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो उत्तम विवेक है । जब कामादिक आसुर गुण नष्ट होते हैं तब विवेक की वृद्धि होती है और उत्तम विवेकवान् व्यक्ति को देखकर सभी सज्जन हर्षित होते हैं । तू भी श्रेष्ठ विवेक संपादन का कार्य किया कर, जिससे तेरे स्रदय की भेद भावना शीघ्र ही नष्ट होकर अभेद भावना आ जाय ।”
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सखी ! कंज पर दो मँडरावें,
नारी पुरुष उभय मम भावें ।
भौंरा भौंरी मैंने जाना,
ज्ञान भक्ति सखि ! नहिं पहचाना ॥२२॥
आ. वृ. - “एक कमल पर दो मंडराते हैं । एक स्त्री और एक पुरुष हैं । बता वे कौन हैं ?”
वा. वृ. - “यह तो भ्रमरी-भ्रमरा होंगे । क्योंकि प्राय: वे कमल पुष्पों पर ही घूमते रहते हैं और उनका वह मधुर गुंजार सहित मंडराना सभी को प्यारा ही लगता है ।”
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ये तो ज्ञान और भक्ति हैं । ज्ञानी भक्त के स्रदय रूप कमल पर ही घूमते रहते हैं, अज्ञानी और अभक्तों के स्रदय पर नहीं जाते । तुझे भी ऐसा ही पुरुषार्थ करना चाहिये कि - जिससे तेरे स्रदय पर वे सदा स्थिर रहने लग जावें ।”
(क्रमशः)
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