रविवार, 3 नवंबर 2013

दादू निर्विष नाम सौं २/६३

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/६३*
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*दादू निर्विष नाम सौं, तन मन सहजैं होइ ।*
*राम नीरोगा करेगा, दूजा नांही कोइ ॥६३॥*
उक्त साखी पर दृष्टांत - 
चोर हुरम नृप बैन सुन, कथा सुनी मन लाय । 
पुत्री व्याहत नाम तैं निरवासी भयो आय ॥९॥ 
एक चोर किसी मुसलमान बादशाह के महल में चोरी करने गया था । उसी समय बादशाह की स्त्री बादशाह से कह रही थी आपकी पुत्री विवाह के लिये अतिशीघ्रता करती हैं । बादशाह - मुझे भी चिन्ता है किन्तु योग्य वर मिले तब हो । और अतिशीघ्रता करती है तो चालीस दिन तक एक स्थान में बैठकर भजन करे तथा कुरान की कथा भी सुने ऐसे व्यक्ति के साथ उसका विवाह कर दिया जायगा और उसे कु़छ ग्राम ग्रादि देकर संपन्न बना दिया जायेगा, चोर सुन ही रहा था । 
अतः वह बादशाह जिस मस्जिद में जाता था उस ही में जाकर बैठ गया । १० - १५ दिन तक बादशाह ने उसे देखा तो उसे भी संकल्प हो गया कि यह चालीस रोज तक ऐसे ही रहेगा तो इसको पुत्री दे दूंगा । वह चालीस रोज तक उसी ढंग से रह गया । तब बादशाह अपनी पुत्री को लेकर उसके पास आया और पुत्री देने को कहा - तो उसने स्वीकार नहीं किया । कारण ? चालीस दिन के भजन से उसका विषय - विष हट गया । वह वासना रहित हो गया । यही उक्त साखी बताती है कि हरि नाम से तन - मन सहज निर्विष हो जाते हैं । 
द्वितीय दृष्टांत - 
हुरम देख भंगी विकल, कह्यो त्रिया समझाय । 
कियो भजन सह काम हो, निष्कामी हो जाय ॥१०॥ 
एक दिन एक नरेश का भंगी उसकी स्त्री का शरीर ठीक नहीं होने से अन्तःपुर में झाडू देने गया था । उसी समय राजा की राणी छत पर अपने केश साफ कर रही थी । भंगी की दृष्टि उस पर पड़ गई । उसकी सुन्दरताः को देखकर वह उसे प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो गया और झाडू भी पूर्णतः न निकाल कर घर में जाकर खटिया पर पड़ गया । 
उसकी स्त्री ने पू़छा - क्या हो गया ? तब उसने उक्त बात सुनादी । उसे सुनकर स्त्री ने कहा - यह तो असंभव है । आप तो इस भावना को छोड़कर खाओ पियो और काम करो । भंगी - मैं तो वह नहीं मिले तब तक कु़छ भी नहीं कर सकता । राणी ने उसकी दृष्टि को पहचान लिया था । अतः दो - चार दिन के बाद राणी ने भंगिन से पू़छा - तेरा पति क्यों नहीं आता ? उसने कहा - यह तो आप पू़छे ही नहीं । राणी ने कहा - तुझे सब माफ है । सत्य सत्य कह दे । तब उसने भंगी की उक्त बात सुनादी । राणी ने कहा - यदि इसी जन्म में, वह मेरे से मिलना चाहे तो सब कु़छ त्याग कर वन में बैठकर भजन करे तो मैं आ मिलूंगी । 
भंगिन ने जाकर कहा तब वह उठकर चल दिया । नगर से तीन - चार मील दूर एक नदी तट पर जाकर निरंतर भजन करने लगा । न किसी की और देखता था न किसी से बोलता था । शरीर की क्रीया नदी के जल से कर लेता था और कोई ले जाकर दे देता तो खा लेता था । उसकी कीर्ति नगर में भी पहुँच गई । भक्त लोग दर्शन करने आने लगे । 
एक दिन राजा भी आया और दर्शन करके अति प्रसन्न हुआ । रात्रि को राणी को भी कहा । राणी ने कहा - मैं भी दर्शन करना चाहती हूं । राजा - कल हो जाओ । प्रबन्ध कर दिया जायगा । राणी गई औैर जाते ही पहचान गई कि यह तो हमारा भंगी ही है । किन्तु फिर सोचा - अब यह भंगी नहीं रहा, अब तो यह संत है । राणी ने कहा - आपने जिसके लिये यह महान् साधन किया है, वह मैं सेवा मैं उपस्थित हूँ आज्ञा दीजिये । 
उसने कहा माताजी ! जैसे आई हो, वैसे ही लौट जाओ । अब वह बात नहीं रही है । अतः भगवत् भजन करने से वह निष्काम हो गया । कहा भी है - 
घर - घर बगड़ बुहार तो, उन भरतो पेट । 
अब तो राम प्रताप से, भूप चढावें भेंट ॥ 
अति पातक युक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्यतम् । 
भूयस्तपस्वी भवति पड्.क्ति पावन पावनः ॥१॥ 
हरिरर्हरति पापानि दुष्टचितैरपि स्मृतः । 
अनिच्छयापि सस्पृष्टो दहत्येवहि पावक ॥२॥ 
गंगा स्नान सहस्त्रेषु पुष्कर स्नान कोटिषु । 
यत्यापं विलयं याति स्मृते नश्यति तद्धरी ॥३॥ 
(क्रमशः)

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