शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- २१/२२)



卐 दादूराम~सत्यराम 卐

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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचम दिन ~ 
अरी एक डाकू अस आवे, 
ले न जाय पर सर्व जलावे ।
सखी बावरा समझ न कोई, 
नहिं, यह क्रोध सयाना होई ॥२१॥
आं. वृ. - “एक ऐसा डाकू आता है जो ले तो कुछ भी नहीं जाता किन्तु सब कुछ जला जाता है । बता वह कौन है ?” 
वां. वृ. - “पागल होगा ! समझ न होने से ऐसा करता है ।” 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो क्रोध है । प्राणी के कमाये हुये भजनादि साधन फल को स्वयं तो ग्रहण नहीं करता किन्तु नष्ट कर देता है । क्रोध से तपादिक नष्ट हो जाते हैं, यह शास्त्र में प्रसिद्ध है । पागल न होकर बड़ा सयाना है । अपने से अधिक बलवान पर उग्र रूप से कभी नहीं आता और किंचित आकर भी छिपकर के रहता है । अपने से कमजोर पर विकराल रूप से आता है । इससे ज्ञात होता है कि वह पागल तो नहीं है । तू क्रोध को कभी भी अपने स्रदय में स्थान न देना । यदि देगी तो तेरे भी साधन फल को नष्ट भ्रष्ट कर देगा और प्राप्त स्रदय की योग्यता पुन: लुप्त हो जायेगी ।”
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एक अचल सखि ! ऐसा आवे, 
कोउक वीर लांघ तिहिं जावे ।
विपिन भयंकर औघट घाटी, 
नहिं, अहंकार विकट पर पाटी ॥२२॥
आं. वृ. - “एक ऐसा अचल(पर्वत) आता है कि उसे लांघकर के कोई-कोई विरला वीर ही पार जाता है । बता वह कौन है ?” 
वां. वृ. - “यह तो भयंकर वन का पर्वत है और उसकी घाटियां भी विकराल हैं ।” 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो अहंकार है । इसको पार करने की रीति बड़ी विकट है । कोई विरले आत्मज्ञानी संत ही पार कर जाते हैं । अन्य सब तो अनात्म अहंकार में ही फँसे रह जाते हैं । तू भी जब-तन, धन धाम, जन, विद्या, जाति, वर्ण, आश्रम, कर्म, धर्म आदि के अहंकार से मुक्त होगी, तब ही अपने स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार कर के ब्रह्मानन्द रूप हो सकेगी । अत: तुझे सभी अनात्म अहंकारों का त्याग करके अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होने के लिये ज्ञानी संतों का सत्संग करते रहना चाहिये ।”
(क्रमशः)

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