सोमवार, 4 नवंबर 2013

दादू - राम नाम में पैसि कर २/७९

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/७९*
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*दादू - राम नाम में पैसि कर, राम नाम ल्यौ लाइ ।* 
*यह इकंत त्रय लोक में, अनत काहे को जाइ ॥७९॥* 
प्रसंग - जगजीवन आंमेर में भौंरे कूवे जाय । 
भजन करत भरियो नहीं, गुरु दादू समझाय ॥१२॥ 
दादूजी के शिष्य पंडित जगजीवन जी आमेर नरेश के परियों के बाग में एक कूप है, जिस में भौंरे(तहखाने) बने हुये हैं और उनमें जाने के लिये पैडियां भी बनी हुई हैं । गरमी में पानी नीचा रहता है, तब वे खाली रहते हैं और वर्षा ऋतु में पानी से भर जाते हैं । 
जगजीवनजी उस भौंरे कूप के भौंरे में बैठकर भजन करते थे वर्षां ऋतु में मावठा सरोवर भरते ही सब कूपों में पानी ऊंचा चढ़ने से जागजीवनजी के भजन करने के स्थान में पानी भर जाता । इससे मालियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है, इस कूप में पानी ऊंचा क्यों नहीं चढ़ता । उनने दादूजी के पास जाकर उक्त कथा सुनाकर कहा - पानी ऊंचा न चढ़ने से हमारे बैलों को बहुत कष्ट होता है । 
दादूजी ने कहा - वे मेरे को प्रणाम करने आयेंगे तब उनको मैं समझा दूंगा फिर वे भौंरे में नहीं बैठैंगे । जगजीवन आये तब दादूजी ने उक्त साखी सुनाकर उनको समझा दिया था । फिर वे उस भौंरे कूप के भौंरे में नहीं गये । और पानी ऊंचा चढ़ गया । यह उक्त साखी की प्रसंग कथा है । दृष्टांत नहीं है । 
दृष्टांत - गये भाजि वशिष्टजी, छोड़ सु यह ब्रह्माण्ड । 
रचि कुटीर संकल्प की, बाझ हृदय बिन भांड ॥१३॥ 
बाझ - रहित । एक दिन वशिष्ट ऋषि अपने आश्रम में भजन कर रहे थे । किसी कारण से उनके भजन में विघ्न हो गया । तब उन्होंने इस ब्रह्मांड के बाहर जाकर संकल्पमय कुटीर रची और उसमें बैठकर भजन करने लगे । किसी कार्यवश कुटीर से बाहर गये थे । लौटकर आये तो उस में एक दूसरे सिद्ध को भजन करते देखा और कहा - यह तो मेरी कुटीर है । सिद्ध - मैं भजन करता हूँ मेरी है । दोनों में विवाद हुआ । दोनों ब्रह्मा के पास गये । ब्रह्मा ने कहा - हृदय से बाहर के स्थानों में तो विघ्न आने से भजन में हानि होती ही है । फिर वशिष्ट पुनः अपने आश्रम में आकर ब्रह्म स्वरूप में मन को विलीन करके भजन करने लगे थे ।
(क्रमशः)

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