सोमवार, 4 नवंबर 2013

दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के २/८०

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/८०*
*दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि ।* 
*हरि सुख एकै पलक का, ता सम कहा न जाइ ॥८०॥* 
दृष्टांत - विश्वामित्र वशिष्ट के, अड़बी पड़ी विशेष । 
शिव ब्रह्मा हरि पच रहे, न्याय निबेरा शेष ॥१४॥ 
एक समय विश्वामित्र सेना सहित शिकार को बन में गये थे । वशिष्ट के आश्रम के पास पहुंच गये । वशिष्ट ने सेना सहित उनका इच्छानुसार आतिथ्य किया । विश्वामित्र ने अपने गुप्तचरों से पता लगवा लिया कि ऐसे पदार्थ इनके पास कहां से आये । तब ज्ञात हुआ कामधेनु की पुत्री नन्दनी इन के पास है । उसी ने प्रदान किये हैं । 
विश्वामित्र ने नन्दनी को मांगा । वशिष्ट - वह तो हमारी कामधेनु है, नहीं दे सकते । विश्वामित्र ने बल से लेना चाहा । तब नन्दनी द्वारा रचित सेना और वशिष्ट के ब्रह्म दंड से विश्वामित्र हार गया । इससे क्षात्र बल को धिक्कार देकर ब्रह्मबल प्राप्त करने को तपस्या करने लगा । बहुत तपस्या करने के बाद ब्रह्मादि से कहा - मुझे ब्रह्मऋषि मानो । ब्रह्मा ने कहा - वशिष्ट तुमको ब्रह्मऋषि कह देंगे तब सब आपको ब्रह्मऋषि मान लेंगे । विश्वामित्र वशिष्ट के पास शस्त्र धारण करके जाते थे इससे वशिष्ट इनको आइये राजऋषि ही कहते थे । इस ईर्ष्या से विश्वामित्र ने वशिष्ट के सौ पुत्र भी मरवा दिये थे । 
फिर एक रात्रि को वशिष्ट को मारने के लिये शस्त्र धारण करके गये थे । पहले उनकी कुटीर के पीछे बैठकर वशिष्ठ और अरुंधती की बातें सुनने लगे । आधी रात को चन्द्रमा उगा उसे देखकर अरुंधती ने कहा - चन्द्रमा का कैसा प्रबल तेज है । वशिष्ट बोले - विश्वामित्र का तेज चन्द्रमा से भी प्रबल है । यह सुनकर विश्वामित्र का क्रोध शांत हो गया । 
वे शस्त्र त्यागकर वशिष्ट के पास गये तब वशिष्ट ने कहा - आइये ब्रह्मऋषि । विश्वामित्र - आपने पहले मुझे ब्रह्मऋषि क्यों नहीं कहा । वशिष्ट - आप शस्त्र धारण करके आते थे । अतः शस्त्रधारी तो राज - ऋषि ही होते हैं । आज दोनों का मेल हो गया । विश्वामित्र ने कहा - आप मेरे भोजन करने पधारें । वशिष्ट गये । भोजन कराकर विश्वामित्र ने तीस हजार वर्ष की तपस्या का फल दक्षिणा में दिया । फिर वशिष्ट ने भी विश्वामित्र को भोजन के लिये बुलवाया और लवमात्र सत्संग का फल दक्षिणा में दिया । 
विश्वामित्र ने कहा - मैंने आपको तीस हजार वर्ष की तपस्या का फल दिया था और आपने मुझे लवमात्र सत्संग का फल दिया है । वशिष्ट - तीस हजार वर्ष की तपस्या के फल से लवमात्र सत्संग का फल अधिक है । विश्वामित्र ने कहा - नहीं तीस हजार वर्ष की तपस्या का फल अधिक है । विवाद हो गया तब ब्रह्मा के पास गये तो ब्रह्मा ने विष्णु के पास भेज दिया । विष्णु ने शंकर के पास भेज दिया । शंकर ने शेषजी के पास भेज दिया । शेषजी ने कहा - पृथ्वी के भार से मैं विकल हूं, पृथ्वी को मेरे शिर से ऊंची उठा दें फिर मैं आप लोगों का न्याय कर दूंगा । 
विश्वामित्र ने पृथ्वी से कहा - तीस हजार वर्ष तप के फल से शेषजी के शिर से ऊंची उठ जा किन्तु नहीं उठी । तब वशिष्ट ने कहा - लवमात्र सत्संग के फल से ऊंची उठजा । कहते ही उठ गई तब न्याय हो गया । विश्वामित्र भी मान गये । अतः सत्संग का फल सर्व सुखों से श्रेष्ठ है ।
(क्रमशः)

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