*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” ३१/३२)*
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**मुकुन्द भारती सांभर ज्ञान चर्चा**
भारति संत मुकुन्द पधारत,
प्रीति भई गुरु दादु हिं देखे ॥
आवहिं संत करी सत्यराम जु,
दीन दयालु उठे दिवि पेखे ॥
वृद्ध शरीर मुकुन्द पुरातन,
बाहु पसारि मिले अभिलेखे ।
बैठि बराबर ज्ञान विचारत,
होत कथा मुख प्रीति विशेखे ॥३१॥
श्रीदादूजी के दर्शनार्थ सिद्ध संत मुकुन्द भारती जी पधारे । अतीव प्रीतिपूर्वक दादूजी से मिले । उन्होंने आकर सत्यराम - शब्द का उच्चारण किया । दादूजी ने उठकर अभिवादन किया, वे उनकी दिव्य साधना को पहिचानते थे । संत का शरीर अत्यन्त वृद्ध और पुरातन हो चुका था, उन्होने बाहु पसार कर दादूजी को गले लगाया, दर्शन अभिलाषा पूर्ण होने से गद्गद हो गये । दोनों सिद्ध संत बराबर बैठकर ज्ञानचर्या करने लगे । दोनों के मुखमण्डल प्रीतिभाव से विशेष प्रफुल्लित हो रहे थे ॥३१॥
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**मुकुन्द भारती जी ने कहा मेरा शरीर ६ महिना रहेगा**
आप कही - तुम आय दया करि,
होत उछाह मिले हरिदासा ।
संत कहें - मन लागि रही नित,
आज मिलै सब पूरण आशा ।
होय कृतार्थ यही तन जीरण,
मोर शरीर रहे षट् मासा ।
आप कही - तुम संत परायण,
जीरण है वपु देह को भासा ॥३२॥
श्री दादूजी बोले - आप ने बहुत दया की, जो यहाँ पधारे । श्रीहरि के भक्तों से मिलने पर मन में उत्सव का आनन्द छा जाता है । संत ने कहा - मन में आपके दर्शनो की उत्कंठा लालसा कई दिनों से लगी हुई थी, आज दर्शन लाभ मिलने से आशा पूर्ण हुई । यह जीर्ण शरीर आज कृतार्थ हो गया । अब यह शरीर छ: महीने और जीवित रहेगा । स्वामीजी ने कहा - आप तो ज्ञान परायण संत है, जीर्ण शरीर का देहाध्यास क्या करना । जीवात्मा जीर्ण शरीर को तो त्यागती ही है ॥३२॥
(क्रमशः)
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