बुधवार, 13 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(पं.दि.- १७/१८)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
पंचम दिन ~ 
आप जले औरन हिं जलावे, 
घर का शील स्वभाव नशावे । 
सखि ! पावक यह मैंने जानी, 
नहिं, ईर्ष्या है जान सयानी ॥१७॥ 
आं. वृ. - ‘‘आप जले और दूसरों को भी जलावे तथा घर का शील स्वभाव भी नष्ट कर दे। बता वह क्या है?” 
वां. वृ. - ‘‘अग्नि है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो ईर्ष्या है। ईर्ष्या वृत्ति स्वयं व्यथित रहती हैं। दूसरों को भी दुखी करती है और अपने आश्रय हृदय की शीतलता भी नष्ट कर देती है। तू कभी भी ईर्ष्या को हृदय में नहीं आने देना। यदि किसी भी प्राणी से ईर्ष्या करेगी तो तेरा भजन साधन न हो सकेगा।” 
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बैठी धाम संग चह पर को, 
स्वामी एक नहीं तिहिं घर को । 
समझ गई यह वेश्या नारी, 
नहिं अयुक्त मन वृत्ति पियारी ॥१८॥ 
आं. वृ. - ‘‘अपने घर बैठी रहती है और अन्य का संग चाहती है। तथा उसके घर का स्वामी एक नहीं है। बता वह कौन है?”
वां. वृ. - ‘‘यह तो वेश्या है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं सखि ! यह तो अजित मनोवृत्ति है। हृदय में स्थित रहती है, भगवान् की ओर नहीं जाती। नाना विषयों को चाहती है और उसके घर हृदय पर एक विषय का अधिकार नहीं होता। उसमें अनेक विषय आते जाते हैं। तुझे अजित वृत्ति के पीछे नहीं लगना चाहिये। उसे जीत कर भगवत् परायण करना चाहिए। जब तक मनोवृत्ति भगवत् परायण न होगी तब तक शांति सुख की आशा नहीं है।” 
(क्रमशः)

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