सोमवार, 18 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(ष.दि.- ५/६)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐

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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
षष्ठम दिन ~ 
इक मन आये मैं दुख पाती, 
पर तुझको तो सोउ सुहाती ।
आश भ्रमण की है मैं जानी, 
नहिं, ममता सहचरी सयानी ॥५॥
आं. वृ. - “एक जब मन में आती है तो मुझे दु:ख होता है किन्तु तुझे वही अच्छी लगती है । बता वह कौन है ?” 
वां. वृ. - “मैं जान गई, यह तो बाहिर घूमने की इच्छा है । तुझे बाहिर भटकना अच्छा नहीं लगता, किन्तु मुझे अच्छा लगता है ।” 
आं. वृ. - “नहिं, चतुर सखि ! यह तो ममता है । मन में धनादिक की ममता आते ही मुझे दुख होता है किन्तु धन, जन, तन, धाम आदि में ममता करना तेरा तो जीवन ही है । परन्तु सखि ! तुझे स्मरण रखना चाहिये कि - यह ममता ही भगवान् और हमारे बीच में पड़ता है । ममता का नाश होते ही तुझे भगवत् साक्षात्कार हो जायेगा । अत: तू सदा निर्मम होने का अभ्यास किया कर ।”
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सखी ! एक को बढ़ते देखा, 
अरु घर ऊपर छाये पेखा ।
समझ गई सखि ! मैं है वेली, 
नहिं, आशा यह जान सहेली ॥६॥
आं. वृ. - “एक तो सदा बढ़ते हुये और घर पर छाये हुए देखा है । बता वह कौन है ?” 
वां. वृ. - “वह तो तोरूं आदि की बेल होगी ।” 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो भोगाशा है । भोगों की आशा स्रदय पर छाई रहती है और बढ़ती भी रहती है । भोगों की आशा को पूर्ण करने के लिये प्राणी रात-दिन प्रयत्नशील रहता है किन्तु यह संतोष बिना पूरी होती ही नहीं । अब तू जो स्वत: प्राप्त हो जाय उसी में प्रसन्न रहा कर । नाना भोगों की आशा करेगी, तो भगवत् भजन कभी भी नहीं हो सकेगा ।”
(क्रमशः) 

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