卐 दादूराम~सत्यराम 卐
.
*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
षष्ठम दिन ~
.
इक मन आये मैं दुख पाती,
पर तुझको तो सोउ सुहाती ।
आश भ्रमण की है मैं जानी,
नहिं, ममता सहचरी सयानी ॥५॥
आं. वृ. - “एक जब मन में आती है तो मुझे दु:ख होता है किन्तु तुझे वही अच्छी लगती है । बता वह कौन है ?”
वां. वृ. - “मैं जान गई, यह तो बाहिर घूमने की इच्छा है । तुझे बाहिर भटकना अच्छा नहीं लगता, किन्तु मुझे अच्छा लगता है ।”
आं. वृ. - “नहिं, चतुर सखि ! यह तो ममता है । मन में धनादिक की ममता आते ही मुझे दुख होता है किन्तु धन, जन, तन, धाम आदि में ममता करना तेरा तो जीवन ही है । परन्तु सखि ! तुझे स्मरण रखना चाहिये कि - यह ममता ही भगवान् और हमारे बीच में पड़ता है । ममता का नाश होते ही तुझे भगवत् साक्षात्कार हो जायेगा । अत: तू सदा निर्मम होने का अभ्यास किया कर ।”
.
सखी ! एक को बढ़ते देखा,
अरु घर ऊपर छाये पेखा ।
समझ गई सखि ! मैं है वेली,
नहिं, आशा यह जान सहेली ॥६॥
आं. वृ. - “एक तो सदा बढ़ते हुये और घर पर छाये हुए देखा है । बता वह कौन है ?”
वां. वृ. - “वह तो तोरूं आदि की बेल होगी ।”
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो भोगाशा है । भोगों की आशा स्रदय पर छाई रहती है और बढ़ती भी रहती है । भोगों की आशा को पूर्ण करने के लिये प्राणी रात-दिन प्रयत्नशील रहता है किन्तु यह संतोष बिना पूरी होती ही नहीं । अब तू जो स्वत: प्राप्त हो जाय उसी में प्रसन्न रहा कर । नाना भोगों की आशा करेगी, तो भगवत् भजन कभी भी नहीं हो सकेगा ।”
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें