*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षष्ठम - तरंग” ३/४)*
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**श्री दादूजी की महिमा दूर - दूर तक फैली**
छाय रही उपमा पुर साँभर,
गालव - महंत सुनी पयहारी ।
वे अपने सब संत बुलावत,
बैठि इकांत कहे अनुसारी ।
संत रहे इक साँभर के मधि,
दादुदयालु सुना तपधारी ।
वो अपनो निज पंथ चलावत,
ना कछु मानत शंक हमारी ॥३॥
साँभर शहर में श्री दादूजी की प्रतिष्ठा का वृतान्त अन्यत्र भी पहुँचने लगा । आमेर के समीपस्थ गालव ॠषि के आश्रम मठाधीश महन्त पयाहारी जी ने जब दादूजी की शोभा सुनी तो - अपने सम्प्रदाय के मुख्य संतों को बुलाया, और एकान्त में बैठकर विचार विमर्श किया । वे बोले - साँभर में एक दादू नाम का संत रहता है, सुना है कि - वह बहुत तपधारी है, अपना अलग से पंथ चला रहा है, हमारी उसे कोई शंका नहीं है, हमारा वैष्णव मत भी वह नहीं मानता ॥३॥
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**गलता पवहारी जी का प्रसंग**
को बुधवन्त यहां तुम साधुन,
साँभर बेगि पठो अब जाई ।
कंठि रू तिल्लक द्यो अपनो मत,
सम्परदाय हम मांहि मिलाई ।
यों सुनि राम सहाय घटोदर,
छीतर गोविन्द दोन्यू हि भाई ।
साँभर जावन उद्यत होवहिं,
पत्र लिख्यो अपने कर सांई ॥४॥
तुम्हारे में ऐसा कौन बुद्धिमान् साधु है ? जो साँभर जाकर उसके मत का खण्डन कर सके, अपने वैष्णव मत का कंठी तिलक वहाँ की जनता में फिर से स्थापित कर सके, और उसके शिष्य सेवकों को हमारे सम्प्रदाय से मिला सके । यह सुनकर रामसहाय, घटोदर, छीतर और गोविन्द साँभर जाने के लिये उद्यत हुये । महन्त जी ने अपने हाथ से एक पत्र लिखा ॥४॥
(क्रमशः)
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