सोमवार, 23 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(अ.दि.- ११/१२)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
अष्टम दिन ~ 
नारी दो घर में अस देखें, 
उनके बनत कभी नहिं पेखें । 
समझ गई मैं दोर जिठानी, 
नहिं, सखि ! हिंसा दया बखानी ॥११॥ 
आं वृ. - ‘‘एक घर में दो ऐसी स्त्रियां देखी जाती हैं कि उनके कभी नहीं बनती। बता वे कौन हैं?” 
वां वृ. - ‘‘दोर जिठाणी होंगी।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! वे हिंसा और दया हैं। तू हिंसा को सर्वथा त्याग देना और दया को ही स्रदय में स्थान देना। क्योंकि दयाहीन मानव, मानव न माना जाकर दानव ही माना जाता है।” 
इक घर आवत सुखिया सारे, 
पर मन भावत नांही थारे । 
अधिक गेह का खर्च सयानी, 
है संतोष न समझी बानी ॥१२॥ 
आं वृ. - ‘‘एक घर पर आता है तब सभी सुखी होते हैं किन्तु तुझे अच्छा नहीं लगता। बता वह कौन है?” 
वां वृ. - ‘‘यह तो घर में अधिक खर्च होगा। क्योंकि मुझे अधिक खर्च अच्छा नहीं लगता है।” 
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो संतोष है। संतोष से सभी को सुख होता है किन्तु वहिर्मुख को नहीं होता। अब तू भी शनै: २ बहिर्मुखता त्याग के अन्तर्मुख होने का यत्न कर।” 
(क्रमशः)

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