卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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अष्टम दिन ~
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नारी दो घर में अस देखें,
उनके बनत कभी नहिं पेखें ।
समझ गई मैं दोर जिठानी,
नहिं, सखि ! हिंसा दया बखानी ॥११॥
आं वृ. - ‘‘एक घर में दो ऐसी स्त्रियां देखी जाती हैं कि उनके कभी नहीं बनती। बता वे कौन हैं?”
वां वृ. - ‘‘दोर जिठाणी होंगी।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! वे हिंसा और दया हैं। तू हिंसा को सर्वथा त्याग देना और दया को ही स्रदय में स्थान देना। क्योंकि दयाहीन मानव, मानव न माना जाकर दानव ही माना जाता है।”
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इक घर आवत सुखिया सारे,
पर मन भावत नांही थारे ।
अधिक गेह का खर्च सयानी,
है संतोष न समझी बानी ॥१२॥
आं वृ. - ‘‘एक घर पर आता है तब सभी सुखी होते हैं किन्तु तुझे अच्छा नहीं लगता। बता वह कौन है?”
वां वृ. - ‘‘यह तो घर में अधिक खर्च होगा। क्योंकि मुझे अधिक खर्च अच्छा नहीं लगता है।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो संतोष है। संतोष से सभी को सुख होता है किन्तु वहिर्मुख को नहीं होता। अब तू भी शनै: २ बहिर्मुखता त्याग के अन्तर्मुख होने का यत्न कर।”
(क्रमशः)
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