सोमवार, 23 दिसंबर 2013

आन पुरुष हूं बहिनड़ी ८/३९

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/३९*
*आन पुरुष हूं बहिनड़ी, परमपुरुष भरतार ।*
*हूं अबला समझुं नहीं, तू जाने करतार ॥३९॥*
प्रसंग - 
सात चरित माया किये, गुरु दादू ढिग आय ।
इमि पू़छी तब लजित हो, गई चरम शिर नाय ॥८॥
दादूजी जब करडाले के पर्वत पर कठोर तपस्या कर रहे थे । तब इन्द्र ने सोचा - ये मेरे पद के लिये ही इतनी कठौर तपस्या कर रहे है । अतः इन्द्र ने एक अप्सरा रूप माया को दादूजी को तप से डिगाने के लिये भेजा । उसने आकर दादूजी के सामने काम को जाग्रत करने की हाव भावादि रूप अनेक चेष्टायें की किन्तु दादूजी तो निष्कामी संत थे । अतः उन पर उसकी उन चेष्टाओं का कु़छ भी प्रभाव नहीं पड़ा । 
तब उसने सोचा ये निष्कामी संत है, इनमें काम जायत करना तो असंभव है किन्तु मुझे इन्द्र की आज्ञा इनको तपस्या से डिगाने की है । अतः इनकी भावना के अनुसार ही कपट से डिगाने की चेष्टा की जाय तो कहीं सफलता मिल सकती है । ऐसा विचार करके उसने निरंजन ब्रह्म के साक्षात्कार से पूर्व होने वाले चिन्ह माया से प्रकट करने आरम्भ किये । वे दादूजी को दीखने लगे तब दादूजी ने कहा - 
ज्योति चमके तरबरे, दीपक दीखे लोय ।
चंद सूर का चाँदणा, पगर छलावा होय ॥
१स्थिर ज्योति, २प्रकाश के तरवरे, ३दीप, ४चन्द्रमा, ५सूर्य, ६आग राशि का सा प्रकाश और ७प्रातः संध्या समय का सा प्रकाश, ये सब प्रकाश बारंबार दीखने लगे इस प्रकार उक्त सात चरित्र दिखाकर के उसने कहा - जिसकी प्राप्ति के लिये तुम यह कठोर तप कर रहे हो, वही निरंजन मैं तुम्हारी निष्काम तपस्या से अति संतुष्ट हूँ, तुम मेरी ओर देखो । 
किन्तु दादूजी उस माया के उक्त कपट से भी नहीं छले गये । उन्होंने कहा - निरंजन ब्रह्म तो निराकार हैं, और तुम्हारा तो आकार दीख रहा है । अतः तुम निरंजन नहीं माया हो । यहां से शीघ्र चली जाओ । तुम मुझे छलने के लिये आई हो किन्तु मैं तो तुम्हारी बहिन ही हूँ । मैं भी अबला होने से कु़छ नहीं समझती हूं और तुम मुझे काम चेष्टा करने वाला पुरुष जानती हो । मैं वेसा नहीं हूँ । वैसा पुरुष तो और हो सकता है । 
हम सबके भरतार परम पुरुष परमात्मा ही हैं । तुम निरंजन हो तो तुम्हारा आकार कैसे दीख रहा है ? यह प्रश्‍न करने पर तथा बहिन कहने से वह लज्जित हो शिर नमाकर चलो गई । उक्त ३९ की साखी उसी को सुनाई थी ।
(क्रमशः)

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