शनिवार, 21 दिसंबर 2013

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卐 सत्यराम सा 卐
पहली प्राण विचार कर, पीछे पग दीजे । 
आदि अंत गुण देख कर, दादू कुछ कीजे ॥४४॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कोई भी व्यावहारिक या परमार्थिक कार्य हो, पहले श्‍वास में उसके आदि और अन्त के फल का विचार करके प्रारंभ करना चाहिये ॥४४॥ 
चिरकाल गौत्तम सुमन, तात कहि हत माइ । 
मात दोस गुण पितु वचन, संसे रह्यो समाइ ॥ 
दृष्टान्त ~ गौतम ऋषि अपने पुत्र की परीक्षा हेतु बोले ~ ‘तुम अपनी माता को मार दो’ । पुत्र ने विचार किया कि माता के मारने में तो भारी पाप है । परन्तु फिर विचार किया कि पिता की आज्ञा की अवहेलना करने से तो इससे भी बड़ा पाप होगा । यह सोचकर माता की गर्दन पर एक हथियार मारा कि उसी समय माता की मृत्यु हो गई । पिता पुत्र को आज्ञाकारी जानकर अति प्रसन्न हुए और बोले ~ पुत्र ! मांग वरदान । पुत्र बोला ~ हे पिता ! मेरी माता जीवित हो जावे और उसके मन में यह भावना न रहे कि मेरे पुत्र ने मुझे मारा था । पिता ने कहा ~ जाओ, ऐसा ही हो । तत्काल माता जीवित हो गई । 
पहली प्राण विचार कर, पीछे चलिये साथ । 
आदि अंत गुण देखकर, दादू घाली हाथ ॥४५॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! प्रथम अपने अन्तःकरण में आदि और अन्त के फल का विचार करके, फिर किसी कार्य में प्रवृत्त होना ॥४५॥ 
बांदी घर से नीकसी, साधु स्वतः मग जांहि । 
लखि कुसंग मग तज गए, आन गही मग मांहि ॥ 
दृष्टान्त ~ एक राजा की बांदी कहिए दरोगन, बहुत सा धन लेकर, घर से चल पड़ी । रास्ते - रास्ते जा रही थी । एक संत भी मार्ग में मिले । वह बोली ~ महाराज ! मैं भी चल रही हूँ, आपके साथ । संत ने विचार किया कि यह तो कुसंग है । स्त्री का रूप और फिर कुछ किसी का लेकर आई हो तो क्या पता ? 
यह सोचकर संत रास्ता छोड़कर जंगल की ओर जाने लगे । वह बोली ~ महाराज ! इधर कहॉं जाते हो ? संत बोले ~ भाई ! हम तो ऐसे ही जंगलों में घूमते रहते हैं, तुम अपने रास्ते से जाओ । इतने में पीछे से घुड़सवार आये और उसकी रास्ते में पिटाई की, सब धन ले लिया और पकड़कर ले गये । महात्मा दूर से देख रहे थे । विचार किया कि अगर हम उसके साथ होते, तो ये जूते हमारे भी पड़ते और लोग जानते कि यही तो भगाकर लाया है ? संत बोले ~ हे परमेश्‍वर ! ऐसे कुसंग से आप बचाते रहना । 
पहली प्राण विचार कर, पीछे कुछ कहिये । 
आदि अंत गुण देखकर, दादू निज गहिये ॥४६॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! पहले अन्तःकरण में शब्द के फलाफल का कुछ विचार करके, फिर किसी को कुछ कहना । शब्द के आदि अन्त का गुण देखकर हृदय में निश्‍चय करना ॥४६॥ 
सेठ गयो हरिद्वार को, लाख रुपया धर तीर । 
संकल्प्यो नहीं, ढील करी, मच्छ ले गयो नीर ॥ 
दृष्टान्त ~ एक सेठ लाख रुपया धर्म करने को हरिद्वार लेकर गया । गंगा जी की तीर पर रुपयों की थैली रख दी और विचार किया कि पहले स्नान वगैरा कर लूं, उसके बाद दान करूंगा । उसने यह विचार नहीं किया कि शुभ कर्म जितना जल्दी हो सके, कर लें । वह स्नान करने को गंगा जी में गया । लाख रुपयों की थैली मगरमच्छ घसीट कर जल में ले गया । सेठ के सहित सभी लोग देखकर चकित हो गये और पश्‍चात्ताप करने लगे । 
पहली प्राण विचार कर, पीछे आवै जाइ । 
आदि अंत गुण देख कर, दादू रहै समाइ ॥४७॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! प्रथम शरीरधारी विवेकी पुरुष को कारण - कार्य का अर्थात् कारण ब्रह्म और कार्य माया - प्रपंच, इनके गुण, स्वभाव, चेतनता, जड़ता आदि, नित्य अनित्य का विचार करके मुमुक्षुजनों को माया - प्रपंच से उदासीन होकर चैतन्य नित्य स्वरूप ब्रह्मतत्त्व में ही अभेद होना चाहिये । इस प्रकार ब्रह्म विचार के द्वारा ही संतजन आवागमन से मुक्त होते हैं ॥४७॥ (व्यवहार में भी ४४ साखी से ४९ साखी तक विचारवानों को परम विवेक पूर्ण, हितकारक, शुभ कर्त्तव्य करने का आदेश है ।) 
दादू सोच करै सो सूरमा, कर सोचै सो कूर । 
कर सोच्यां मुख श्याम ह्वै, सोच कियां मुख नूर ॥४८॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जो उत्तम - पुरुष कार्य करने से पहले फलाफल का विचार करके फिर प्रवृत्त होता है, उसके चेहरे पर ओज रहता है । और जो अविवेकी पुरुष कार्य के आदि अन्त का विचार न करके कार्य करता है और उसका फल दुःखदायी होता है । फिऱ सोचता है कि पहले इस प्रकार विचार करके करता तो यह दुःख न होता । कार्य बिगाड़कर सोचने वाले ऐसे कायर पुरुष के चेहरे पर कलंक लगता है ॥४८॥ 
पूरब बुधि जिन ऊपजै, तिन सुख अति आनन्द ।
‘जगन्नाथ’ पश्‍चिम मति, ते कहिये मति – मन्द ॥ 
जिनके आवै आदि ही, अकल कला जगदीश । 
जगन्नाथ सो नर नहीं, सुर है विस्वाबीस ॥ 
जो मति पीछे ऊपजै, सो मति पहली होइ । 
कबहुं न होवै जीव दुखी, दादू सुखिया सोइ ॥४९॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जो मति, परम विवेक रूप बुद्धि, कार्य बिगड़ने के बाद उत्पन्न होती है, वह बुद्धि ईश्‍वर कृपा और गुरु कृपा से यदि पहले उत्पन्न हो जावे, तो वह जीवात्मा दुःखों को प्राप्त नहीं होता,अपितु जीवात्मा परम सुख को अनुभव करता है ॥४९॥ 
कबीर पहली ऊपजै, सुधी सुजान सो जान ।
पीछै उपजै अज्ञानि के, मानै दुख परियांन॥ 
(श्री दादू वाणी ~ विचार का अंग) 
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साभार : True Indian ~ अक्लमंद हंस 

एक बहुत बडा विशाल पेड था। उस पर बीसीयों हंस रहते थे। उनमें एक बहुत स्याना हंस था,बुद्धिमान और बहुत दूरदर्शी। सब उसका आदर करते ‘ताऊ’ कहकर बुलाते थे। एक दिन उसने एक नन्ही-सी बेल को पेड के तने पर बहुत नीचे लिपटते पाया। ताऊ ने दूसरे हंसों को बुलाकर कहा “देखो, इस बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सबको मौत के मुंह में ले जाएगी।” 
एक युवा हंस हंसते हुए बोला “ताऊ, यह छोटी-सी बेल हमें कैसे मौत के मुंह में ले जाएगी ?” 
स्याने हंस ने समझाया “आज यह तुम्हें छोटी-सी लग रही हैं। धीरे-धीरे यह पेड के सारे तने को लपेटा मारकर ऊपर तक आएगी। फिर बेल का तना मोटा होने लगेगा और पेड से चिपक जाएगा, तब नीचे से ऊपर तक पेड पर चढने के लिए सीढी बन जाएगी। कोई भी शिकारी सीढी के सहारे चढकर हम तक पहुंच जाएगा और हम मारे जाएंगे।” 
दूसरे हंस को यकीन न आया “एक छोटी सी बेल कैसे सीढी बनेगी?”
तीसरा हंस बोला “ताऊ, तु तो एक छोटी-सी बेल को खींचकर ज्यादा ही लम्बा कर रहा है।” 
एक हंस बडबडाया “यह ताऊ अपनी अक्ल का रौब डालने के लिए अंट-शंट कहानी बना रहा हैं।” 
इस प्रकार किसी दूसरे हंस ने ताऊ की बात को गंभीरता से नहीं लिया। इतनी दूर तक देख पाने की उनमें अक्ल कहां थी ? 
समय बीतता रहा। बेल लिपटते-लिपटते ऊपर शाखों तक पहुंच गई। बेल का तना मोटा होना शुरु हुआ और सचमुच ही पेड के तने पर सीढी बन गई। जिस पर आसानी से चढा जा सकता था। सबको ताऊ की बात की सच्चाई सामने नजर आने लगी। पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था क्योंकि बेल इतनी मजबूत हो गई थी कि उसे नष्ट करना हंसों के बस की बात नहीं थी। 
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एक दिन जब सब हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे तब एक बहेलिआ उधर आ निकला। पेड पर बनी सीढी को देखते ही उसने पेड पर चढकर जाल बिछाया और चला गया। सांझ को सारे हंस लौट आए पेड पर उतरे तो बहेलिए के जाल में बुरी तरह फंस गए। जब वे जाल में फंस गए और फडफडाने लगे, तब उन्हें ताऊ की बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का पता लगा। सब ताऊ की बात न मानने के लिए लज्जित थे और अपने आपको कोस रहे थे। ताऊ सबसे रुष्ट था और चुप बैठा था।
एक हंस ने हिम्मत करके कहा “ताऊ, हम मूर्ख हैं, लेकिन अब हमसे मुंह मत फेरो।’ 
दूसरा हंस बोला “इस संकट से निकालने की तरकीब तू ही हमें बता सकता हैं। आगे हम तेरी कोई बात नहीं टालेंगे।” सभी हंसों ने हामी भरी तब ताऊ ने उन्हें बताया “मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब बहेलिया आएगा, तब मुर्दा होने का नाटक करना। बहेलिया तुम्हें मुर्दा समझकर जाल से निकाल कर जमीन पर रखता जाएगा। वहां भी मरे समान पडे रहना। जैसे ही वह अन्तिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब उड जाना।”
सुबह बहेलिया आया। हंसों ने वैसा ही किया, जैसा ताऊ ने समझाया था। सचमुच बहेलिया हंसों को मुर्दा समझकर जमीन पर पटकता गया। सीटी की आवाज के साथ ही सारे हंस उड गए। बहेलिया अवाक होकर देखता रह गया। 
सीखः बुद्धिमानों की सलाह गंभीरता से लेनी चाहिए।

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