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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/३५*
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दादू - नीच - ऊंच कुल सुन्दरी, सेवा सारी होइ ।
सोइ सुहागिनि कीजिये, रूप न पीजे धोइ ॥३६॥
दृष्टांत -
सदना अरु रैदास को, कुल कारण नहिं कोय ।
प्रभु आये सब छोड के, विप्र वैष्णव रोय ॥६॥
सदना जाति के कसाई थे किन्तु उनमें भक्ति थी तब ही वैष्णव को त्याग कर सदना के पास आये थे । सदना को एक शालग्राम मिल गये थे । वह उनसे मांस तोला करता था । एक दिन मार्ग से जाते हुये एक वैष्णव संत की दृष्टी शालग्राम पर पड़ गई तह उन्होंने कहा - ये शालग्रामजी हैं, इनसे मांस तोलना बहुत बुरा है । मुझे दे दें मै इनकी विधि - विधान से पूजा करुंगा । नहीं देगा तो मुझे अति दुःख होगा ।
सदना ने दे दिया । संत की विधि - विधान की पूजा प्रभु को प्रिय नहीं लगी । रात्रि को स्वप्न में कहा - तुम मुझे सदना के पास ही पहुँचा दो, उसकी भक्ति मुझे अति प्रिय लगती है । तब संत सदना के पास गये और कहा - भगवान् तो तेरे से ही राजी हैं, ये शालग्रामजी तेरे पास ही रहना चाहते हैं । उक्त प्रकार
शालग्राम पुनः सदना के पास ही आ गये । अतः भगवान् को भक्ति ही प्रिय है ।
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रैदास के प्रभु ब्राह्मणों को छोड़कर आये थे । काशी के ब्राह्मणों को रैदास के यहां शालग्रामजी की पूजा होना अच्छा नहीं लगा । इससे काशी के राजा के पास गये और कहा - रैदास चमार शालग्राम की पूजा बिना अधिकार के कर राह है । अतः शालग्राम उससे ले लेना चाहिये । राजा ने कहा - शालग्रामजी को ब्राह्मणों और रैदास के बीच में रक्खा जाय । प्रार्थना करने पर शालग्राम जिनके पास चले जायें वे ही पूजा के योग्य समझे जायेंगे ।
ब्राह्मणों ने वैदिक मंत्रों से और रैदास ने हो अघमोचन आदि पदों से प्रार्थना की । तब शालग्रामजी रैदास के पास चले गये । अतः कुल कारण होता तब तो ब्राह्मणों के पास जाते किन्तु भगवान् को तो भक्ति ही प्यारी है । इससे ब्राह्मणों को त्यागकर रैदास चमार के पास चले आये । सोई उक्त ३६ की साखी में कहा है ।
(क्रमशः)
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