*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“नवम - तरंग” ९-१०)*
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दास कबीर हिं बालद ल्यावत,
पोष सबै द्विज संत जिमाये ।
कोपि सिकन्दर गंग बहावत,
साँकल ही कटि बाहर आये ।
बांध कबीर गयंद झुकावत,
सिंह भये हरि संत बचाये ।
पाँव परयो पतस्या सिर नावत,
हाथ धरयो सिर सिंह गमाये ॥९॥
कबीर दास की लाज रखने श्री हरि बालद लाये, सब संतों का पोषण कर भोजन जिमाया । कोप करके सिकन्दर ने कबीर को गंगा में बहाया, किंतु श्री हरि ने सांकल काट कर बाहर निकाला । कबीर जी को हाथी के खूंटे बांधने पर श्री हरि ने सिंह रूप धारण करके रक्षा की, तब बादशाह सिकन्दर शीश नवाकर चरणों में गिर पड़ा । उसके सिर पर हाथ धरते ही सिंह अदृश्य हो गया ॥९॥
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*जगन्नाथपुरी में*
पंडित जू जगनाथ हिं भीतर,
मींजत हाथ कबीर उबारे ।
चंदव द्वारिक माँहि बुझावत,
पीपा ठोरहिं तोय सरारे ।
संत हुये रविदास, खिजे द्विज,
शुद्दर सालगराम पधारे ।
काटि हु कंध जनेउ दिखावत,
संतन पिंजर हीं दुख टारे ॥१०॥
जगन्नाथपुरी में पंडित का हाथ मींजते ही(जलते ही) कबीर जी ने काशीराज सभा में जल डालकर उसकी रक्षा की । पीपाजी ने जब किसी पंडित से सुना कि - वास्तविक द्वारिका समुद्र में डूबी हुई गुप्त है । श्री राधाकृष्ण वहीं विराजते हैं, तो पीपाजी समुद्र में कूद पड़े । श्री हरि ने कृपा करके दर्शन दिये । चंदवा(छाप) दी । संत रविदास से काशी के ईर्ष्यालु द्विज बहुत असन्तुष्ट रहते थे, उन्होंने राजा प्रजा में रविदास की बहुत निन्दा व विरोध किया, किन्तु शालिग्राम रूप में श्री हरि उन्हीं शूद्र जाति वाले चमार रैदास के घर विराजे । गंगा भी उनकी कठौती में आई । संत - पंडित रैदास जी ने शिष्य बनी हुई चित्तौड़ की झालारानी द्वारा भोज दिये जाने पर, ब्राह्मणों के बहिष्कार को देखकर, अपने कंधे की चमड़ी काटकर अन्तर्निहित जनेऊ दिखाई थी ॥१०॥
(क्रमशः)
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