卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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नवम दिन ~
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नाद सुनत सम्यक थिर होई,
निज अभाव देखे तब सोई ।
समझ गई मैं मृग वन केरा,
यह जिज्ञासु कहां मन तेरा ॥१४॥
आ. वृ. - “एक ऐसा है कि शब्द सुनकर स्थिर हो जाता है और उस शब्द के द्वारा अपना अभाव भी करा बैठता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “यह तो वन का मृग है । व्याध की बीणा का शब्द सुनकर खड़ा रह जाता है, तब ब्याध उसे मार देता है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो जिज्ञासु है । संतों के ज्ञानमय बचन सुनकर उनके अर्थ में स्थिर हो जाता है और अपने जीव भाव का अभाव भी देखता है, अर्थात् देहादिक अहंकार उसके नष्ट हो जाते हैं । तू भी संतों के ज्ञान-प्रधान वचन श्रद्धा से सुनकर, उनके अर्थ में अपना मन स्थिर करेगी, तभी तेरा देहादिक अहंकार नष्ट होकर शुद्ध स्वरूप प्राप्त होगा ।’’
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घात करे घर मरे न दोसी,
दिन दिन खेद अधिक ही होसी ।
अहि अरु बम्बी मैं पहचानी,
नहीं स्थूल तन चित्त सयानी ॥१५॥
आ. वृ. - “घर को छिन्न भिन्न करने से दोषी नहीं मरता, उलटा दु:ख ही बढ़ता जाता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “सर्प और उसकी बम्बी है । बम्बी के दंडे मारने से सर्प नहीं मरता, उलटा सर्प का भय बढ़ता जाता है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो स्थूल देह और मन है । स्थूल देह को व्रतादिक करके सूखाने से मन नहीं मरता प्रत्युत: कमजोरी आदि से दु:ख ही बढ़ता है । तू कभी अनावश्यक ऐसे लम्बे व्रत मत करना । लम्बे व्रतों से शरीर रोगी हो जाता है । फिर न तो लौकिक काम ही उत्साहपूर्वक हो सकते और न कल्याण साधन ही हो पाता । तू प्रत्येक कार्य विचार की कसौटी पर कस कर के ही किया कर जिससे आगे पश्चात्ताप न करना पड़े । कभी तेरा विचार काम न दे तो श्रेष्ठ संतों से पूछ करके किया कर । ऐसा करने से तेरे सभी कार्य निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण होते रहेंगे ।’’
(क्रमशः)
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