*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“अष्टम - तरंग” ११-१२)*
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रज्जब जी सांगानेर नवाब के पुत्र थे
षोड़श वर्ष भये रज्जब तन,
ब्याहन अम्बपुरी मधि आये ।
सम्मुख संत मिले गुरु दादु जु,
सम्मुख संत मिले गुरु दादु जु,
देखत ही उपदेश सुनाये ।
देह रची हरिनाम भजो तन,
देह रची हरिनाम भजो तन,
जीव उधारन औसर पाये ।
ता सब छाड़ि विषै रस चाखत,
ता सब छाड़ि विषै रस चाखत,
कंचन देह जु धूरि मिलाये ॥११॥
सोलह वर्ष की अवस्था में रज्जब जी विवाह रचाने अम्बापुरी आये । वर यात्रा के सम्मुख संत श्री दादूजी मिले । संत उन रज्जबजी को देखते ही पहिचान गये कि वह हरिभक्ति करने वाला जीव है, अत: तुरन्त उपदेश सुनाया – “ईश्वर ने यह शरीर - वृति राम - नाम भजने को रची है, जीव के उद्धार व कल्याण करने का यही मनुष्य जन्म तो एक मात्र अवसर मिला है । उस दुर्लभ अवसर का सदुपयोग छोड़कर, विषय - वासनाओं में उलझने कहाँ जा रहे हो, अपनी कंचन समान देह को धूल में क्यों मिला रहे हो । विषयों का रस चखते - चखते कभी तृप्ति नहीं होती है, और यह दुर्लभ शरीर जीर्ण क्षीण हो जाता है, अवसर हाथ से निकल जाता है । अत: समय रहते सचेत हो जाओ, श्री हरि का भजन कर अपना कल्याण करो” ॥११॥
कीया था इस काम को, सेवा कारण साज ।
दादू भूला बन्दगी, सर्या न एको काज॥
कीया था इस काम को, सेवा कारण साज ।
दादू भूला बन्दगी, सर्या न एको काज॥
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यों सुनि बेगि पर्यो चरणां मधि,
कंकण डोरहिं भ्रात बंधाना ।
आप दया करि शीश धर्यो कर,
आप दया करि शीश धर्यो कर,
तत्व सुनाय दियो निज ज्ञाना ।
शंकर शेष जपैं सनकादिक,
शंकर शेष जपैं सनकादिक,
सो निज जाप दियो दृढ़ ध्याना ।
१दूलह अम्मर स्वांत बनो तुम,
सांगानेर भजो भगवाना ॥१२॥
संत उपदेश सुनकर रज्जबजी की अन्तर चेतना जाग गई । तुरन्त हाथी से उतर कर संत चरणां में गिर पड़े । विवाह का कंगन डोरा, अपने भाई के हाथ और सिर में में बांध दिया । अपनी जगह उसे विवाह रस्म के लिये भेज दिया, और गुरु दीक्षा के लिये प्रार्थना करने लगे । स्वामीजी ने दया करके सिर पर हाथ धरा, और तत्वज्ञान की दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया । जिस नाम को शंकर, शेष, सनकादिक जपते रहते हैं, वह नाम जाप बताकर दृढ़ ध्यान के लिये कहा और समझाया कि अपनी
१. अन्त: - करण वृति को अमर दुल्हा से मिलाओ(श्री हरि की भक्ति व प्रीति में लगाओ) फिर वह सदा सुहागिन रहेगी ।
२. वह अमर दुल्हा(दुर्लभ है) । विषय वासनाओं में आसक्त जन साधारण उसे नहीं पा सकता ।
३. जो अपने स्व का अन्त कर लेता है, ममत्व को, अहं को मिटा देता है - उसे वह दुर्लभ अमर दूल्हा मिलता है ।
४. तुम इस दूल्हावेश में ही भजन साधना करते हुये अमरत्व को प्राप्त करो । क्योंकि इसी वेश में तुम्हें गुरु प्राप्ति हुई है, दीक्षा मिली है । इस तरह चार व्याख्याओं के रहस्य युक्त उपदेश देकर स्वामीजी ने आदेश दिया कि अब तुम अपने स्थान सांगानेर में रहते हुये ही भजन साधना करो ॥१२॥
नोट : रज्जबजी का सेवरा, छोटे भाई के बांधने से बरात आगे रुक गई, रुकना स्वभाविक ही था, दुल्हा के बिना बारात कहां जावे, लेकिन रज्जबजी के पूर्व जन्मों के संस्कार थे, उनको कौन रोक सकता था, तुरंत सुनते ही परम सत्गुरु के चरणों में गिर पड़े, यह पूर्व भक्ति, संस्कार किसी किसी में होते हैं, वह अच्छे मनुष्य जन्म पाकर पुन: भक्ति ज्ञान मार्ग में लग जाता है । रज्जबजी ने अपनी वाणी में कहा है : -
रज्जब तैं गज्जब कीया, शिर पर बाधा मोर ।
आया था हरि भक्ति को करी नरक कों ठोर ॥
बारात में ४०० पठाण थे । रात को बारी - बारी से श्रीदादूजी के स्वरूप पर खाण्डे चलाये, लेकिन श्रीदादूजी का क्या बिगड़ता था, श्रीदादूजी तो केवल आकृति स्वरूप थे, पाच तत्वों का शरीर नहीं था, सवेरे चार बजे तब दरबार की तोप छूटी तब सारे घबरा गये कि, अब क्या करें सभी ने विचार कया दादूजी से माफी मांगी, सभी ने कहा गुरुदेव हमारी गलती हो गई, हम सबको माफ करिए, हम भी आपके सेवक है, श्रीदादूजी ने कहां हां भाई आप लोग भी सेवक हो, कोई तो हाथों से सेवा करता है, आप लोगों ने खाण्डो से की है तब सभी ने कहा गुरुदेव हमारे रज्जब पर आपने दोष कर दिया, दादू जी ने कहा : -
जिसका था तिसका हुआ तो काहे का दोष ।
दादू बन्दा बन्दगी मीयां ना कर रोष ॥
दादू बन्दा बन्दगी मीयां ना कर रोष ॥
जिसका बन्दा था उस मालिक का हो गया इसमें कौन सा दोष है, सत्यराम ।
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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