रविवार, 5 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(३१/३२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*लंघण१ के लकु२ घणा, कपर३ चाट४ डीन्ह ।*
*अलह पांधी५ पंध६ में, बिहंदा७ आहीन८ ॥३१॥*
टीका ~ हे परमेश्वर ! इस संसार रूप दरयाव१ का पाट२ चौड़ा है, और नौका चलाने के चप्पू रहित है । हे प्रभो! यह संसार सागर बहुत गहरा है, इसका वारपार नहीं है, इसमें कर्मों की लहरों की चपेट लगती है इसे पार करना अति कठिन है । आप अपनी कृपा रूपी चाट या पतवार से पार लगा सकते हैं । परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग६ में उलझ रहे हैं अर्थात् प्रथम तो संसार से पार होना अति कठिन है । किन्तु कर्म - बन्धन एवं अविद्या रूपी काल ने चपेट४ लगाकर इस नौका रूप प्राणधारी५ को आवागमन के भँवर३ रूप चक्र में भंयकर७ रूप से डाल दिया है८ अब हे परमेश्वर ! आपकी प्राप्ति में संसार - बंधन रूपी जो विघ्न६ हैं, उनको हटाकर हमको अपनी शरण में लीजिये । यही आपसे प्रार्थना है ॥३१॥
‘‘संसार सागर मद्य दुस्तर ताहि को अभै को तिरै । 
जे कोटि साधन करत कोऊ, वृथा ही पचि - पचि मरै ॥’’
- सुन्दर स्वामी
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*काल चितावणी*
*दादू हसतां रोतां पाहुणा, काहू छाड़ न जाइ ।*
*काल खड़ा सिर ऊपरै, आवणहारा आइ ॥३२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लड़की का पति, चाहे लड़की हँसो या रोवो, उसको लेकर ही जाता है । इसी प्रकार काल - भगवान भी सिर पर सवार हो रहा है । वह किसी को भी नहीं छोड़ेगा । सभी को ले जायेगा ॥३२॥
(क्रमशः)

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