*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“नवम - तरंग” ५-६)*
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*टीलाजी का राजा को लीला समझाना*
नहीं छानी बात स्वामि हु,
सुनो गाथा महीपते ।
जगत् हित ही रचें संतहु,
जननी ज्यूं पालत सुते ।
बिरद - संत लजाय कब हरि,
संत हरि शिरमौर ही ।
साधु दु:खित होय कबहूँ,
बेगि हरि तब दौर ही ॥५॥
हे राजन् ! स्वामीजी की लीलायें कोई छिपी हुई नहीं है । सर्वत्र उनकी यशोगाथा, तपोवार्ता तथा चमत्कार चर्चा फैल गई है । जगत् के कल्याण हेतु ही संत स्वरूप धारण करते हैं । ईश्वर प्रेरणा से अवतरित होने वाले संतों का पालन, रक्षण स्वयं श्री हरि उसी प्रकार करते हैं, जैसे - जननी अपने सुत का करती है । संतों का विरुद, वे हरि कभी भी लजने नहीं देते । संत तो हरि के शिरोमणि समान है । अत: जब कभी भी साधु संत दु:खी होते हैं, तो श्री हरि तुरन्त उनकी सहायता को दौड़ पड़ते हैं । संतों की चमत्कारपूर्ण लीलाओं को देखकर या सुनकर आश्चर्य नहीं, अपितु श्रद्धा भाव हृदय में धारण करना चाहिये । क्योंकि संतों के कार्य तो स्वयं श्री हरि सम्पन्न करते हैं ॥५॥
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*साधु दुखी तब हरि दुखी,
ऐसा सिरजनहार ।*
*इन्दव - छन्द*
*जैसे प्रहलाद और भक्तों की रक्षा की*
ज्यूं प्रहलाद हिं काज फट्यो खंभ,
संत उबारि निशाचर मारे ।
ज्यूं अम्बरीष हिं कोप दुर्वास जु,
चक्रहिं त्रास भये जन तारे ।
ज्यूं गजराज हिं काज सरयो झष,
छाड़ि खगेश पदाति पधारे ।
भारत माँहि रख्यो प्रण भीषण,
पारथ को रथ आप हँकारे ॥६॥
हे राजन् ! इस विषय में अनेक उदाहरण देकर मैं यह पुष्ट कर रहा हूं कि, श्री हरि के जो भी अनन्य शरण हो जाता है, उसके सर्व कार्य स्वयं श्री हरि ही सम्पन्न करते हैं । उसके कुशलक्षेम की चिन्ता हरि को रहती है । अत: आश्चर्य नहीं, अपितु संतों के प्रति श्रद्धाभक्ति से समर्पण सेवाभाव धारण करना चाहिये । सुनो, प्रह्लाद की रक्षा के लिये श्री नर हरि खंभ फाड़कर प्रकट हो गये थे, निशाचर हिरण्यकशिपु को मारकर भक्त का उद्धार किया था । दुर्वासा के कोप से भक्त अम्बरीष की रक्षा की थी, सुदर्शन चक्र के त्रास से दुर्वासा को संतप्त कर दिया था । गजेन्द्र की रक्षा के लिये श्री हरि इतने द्रुत गति से आये थे कि वाहन गरुड़ को भी छोड़कर पैदल दौड़ पड़े, और झष(मगरमच्छ) की ग्रीवा काटकर गजेन्द्र को बचाया था । महाभारत युद्ध में भीष्म पराक्रम को परास्त करने के लिये शस्त्र न उठाने की अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ दी । पार्थ का सारथी बनकर रथ हांका था ॥६॥
(क्रमशः)
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