शनिवार, 11 जनवरी 2014

जप तप करणी कर गये १०/१०५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/१०५*
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*जप तप करणी कर गये, स्वर्ग पहूंचे जाइ ।*
*दादू मन की वासना, नरक पड़े फिर आइ ॥१०५॥*
दृष्टांत - 
वाणिक वाम गौणे लिये, आया जल अस्थान ।
जल पीवत तपसी गही, बदल बदल दिये दान ॥२३॥
एक वैश्य ने अपने उद्योग से धन कमाकर अपना विवाह किया था और गौना(द्विरा गमन) के समय पत्नी को लेकर आ रहा था । मार्ग में एक बावड़ी और उसके पास बड़ आदि वृक्ष भी थे । वहां विश्राम किया । फिर वैश्य ने कहा - मैं बावड़ी में से पानी पी आता हूं और तुम्हारे लिये ले आऊँगा । 
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पत्नी ने कहा - आप विराजें मैं ले आऊँगी । वह बावड़ी में जल पीकर लोटा भरकर लौटी तो बावड़ी के भीतर के तिवारे में एक मूर्ति दिखाई दी । उसने वह लोटा का जल उस पर चढ़ा दिया । वह समाधिस्थ योगी था । पानी पड़ते ही उसकी समाधि खुल गई । सामने खड़ी स्त्री को देखकर योगी ने उसे पकड़ लिया । वह नहीं आई तो वैश्य गया और देखा कि योगी ने उसका हाथ पकड़ रखा है । 
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वैश्य ने कहा - इसे छोड दो । योगी - समाधि के अन्त में यह मिली है अतः यह समाधि का फल है, नहीं छोडूंगा । वैश्य ने कहा - यह तो मेरी कमाई का फल है । इसे रखना चाहते हो तो आपकी समाधि रूप कमाई का फल मुझे दे दो । योगी ने मान लिया । समाधि का फल देकर स्त्री ले ली । 
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फिर थोड़ी ही देर में वैश्य के लिये स्वर्ग से विमान आ गया और वह स्वर्ग को चला गया । योगी वहीं ही रह गया । वही उक्त १०५ की साखी में कहा है - जप तपादि करके उक्त योगी स्वर्ग में पहुंच गया था अर्थात् विमान आने वाला ही था किन्तु मन की वासना से पुनः नरक में ही जा पड़ा । अतः मन की वासना को जीतना चाहिये ।
(क्रमशः)

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