卐 सत्यराम सा 卐
सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।
दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥४१॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! मायावी सांसारिक सुखों के उपभोग में और प्राप्ति करने में बहुत दुःख होता है, अर्थात् जन्म - जन्मान्तरों तक जीव दुखी ही रहता है और परमेश्वर की प्राप्ति के साधन योग, भक्ति, वैराग्य, ज्ञान आदि के साधने में दुःख अवश्य है, परन्तु फिर बाद में उसका फल अखंड ब्रह्मानन्द रूप सुख प्राप्त होता है । इसलिये गुरु उपदेश व शास्त्र - श्रवण द्वारा ब्रह्मतत्त्व का मनन करके निदिध्यासन करिये ॥४१॥
करहा कर कर क्यों करै, भार घणों घर दूर ।
मैं तोहि बरजत क्यों लियो, गहण गलंता सूर ॥
दृष्टान्त ~ सूर्य ग्रहण के पर्व पर बहुत से यात्री कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए । यथाशक्ति स्नान, दान करने लगे । एक राजा सोने की मूंछ बनवाकर गहते ग्रहण में दान करने लगा । उस समय विद्वान् लोगों ने लेने से इन्कार कर दिया । तब एक प्रभावी ब्राह्मण ने स्त्री के मना करने पर भी दान ले लिया और उस सोने को इन्द्रियों के सुखों के उपभोग में व्यय करता रहा, परन्तु स्त्री ने उसमें से लेशमात्र भी अपने उदर में नहीं जाने दिया ।
वह ब्राह्मण शरीर छोड़कर चौरासी में गया और स्त्री शरीर छोड़कर राजकन्या बनी । राजा ने किसी सुयोग्य राजकुमार के साथ उस कन्या का विवाह कर दिया । वह ब्राह्मण राजा के यहॉं ऊँटनी का बच्चा बना । वह बड़ा हो गया ।
वह राजकन्या उसको जानती थी कि यह मेरा पूर्व जन्म का पति है । जब राजा ने बहुत सा उसे दहेज दिया, तब वह बोली ~ पिताजी यह ऊँट भी मुझे दे दीजिये । ऊँट दे दिया । उस ऊँट पर नौकरों ने डेरे तम्बू आदि लाद दिये, परन्तु उसकी पीठ पर एक कीला चुभने लगा ।
जब वहॉं से रवाना हो गये, तब वह ऊँट दर्द से ‘‘ऐं, ऐं, ऐं.......’’ करता चलने लगा । राजकन्या अपनी डोली में से बोली ~ ‘‘हे करहा = ऊँट ! अब क्यों ‘‘कर कर’’ करता है ? मैं जानती हूँ, तेरे ऊपर बोझा बहुत है और घर दूर है, परन्तु मैंने तेरे को मना कि या था कि सूर्य ग्रहण में दान मत ले । उस इन्द्रिय सुख का अब तूं भारी दुःख भोग रहा है ।’’
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