रविवार, 2 फ़रवरी 2014

= काल का अंग २५ =(८७/८८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*चंद, सूर, धर, पवन, जल, ब्रह्मांड खंड प्रवेश ।*
*सो काल डरै करतार तैं, जै जै तुम आदेश ॥८७॥*
टीका ~ हे परमेश्वर ! चन्द्रलोक, सूर्यलोक, मृत्युलोक, पवन लोक, वरुण लोक, नौ खंड और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में काल भगवान् व्याप्त हो रहे हैं । और प्राणी मात्र को क्रम - क्रम से भक्षण कर रहे हैं । हे कर्तार ! प्रभु सच्चिदानन्द रूप कारण ब्रह्म, आपसे काल डरते हैं । आपकी जय हो, जय हो, जय हो । आपका नाम - स्मरण करके, आपके भक्त भी काल की त्रास से मुक्त होते हैं । हे प्रभु ! आपको हमारी बारम्बार नमस्कार है ॥८७॥
काल सबनि को दहत है, काल दहन करतार ।
गण गंधर्प मुनि यक्ष देवता, काहू नहीं उबार ॥
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*पवना, पानी, धरती, अंबर, विनशै रवि, शशि, तारा ।*
*पंत तत्त्व सब माया विनशै, मानुष कहा विचारा ॥८८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जिन पंचीकृत पंच तत्त्वों से यह शऱीर बना है, वह पांच तत्त्व भी समय पाकर नष्ट हो जाते हैं तो इस शरीर की क्या गणना है ? क्यों कि यह तो क्षण - भंगुर है । जब माया के कार्य रवि, शशि, तारे इत्यादिक सम्पूर्ण मायिक कार्य नाश होने वाला है । अविनाशी तो एक कारण - ब्रह्म ही है । उसी का स्मरण करके काल की त्रास से मुक्त होते हैं ॥८८॥
पृथिवी दह्यते यत्र मेरूश्चापि विशीर्यते ।
सुशोषं सागरजलं शरीरे तत्र का कथा ?
(जिस काल के भय से पृथ्वी कॉंपती है, सुमेरू पर्वत फट जाता है, समुद्र सूख जाता है तो इस शरीर की क्या बिसात है ?)
(क्रमशः)

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