卐 सत्यराम सा 卐
दादू देखौं निज पीव को, दूसर देखौं नांहि ।
सबै दिसा सौं सोधि करि, पाया घट ही मांहि ॥७४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब तो हम मुक्तजन, पीव को कहिए, साक्षी चैतन्य को अपना निज रूप करके ही ज्ञान - विचाररूपी नेत्रों से देखते हैं और अब "दूसर'' कहिए माया प्रपंच को सत्यरूप करके नहीं देखते हैं । जागृत - स्वप्न - सुषुप्ति तथा पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन सब दिशाओं में "सोधि'' कहिए तलाश करके उसको फिर महावाक्यों द्वारा हमने अपने अन्तःकरण में प्राप्त कर लिया है ॥७४॥
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दादू देखौं निज पीव को, और न देखौं कोइ ।
पूरा देखौं पीव को, बाहिर भीतर सोइ ॥७५॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब तो मुख - प्रीति का विषय जो पीव है, उसको ह्रदय में ही देखते हैं । उसके सिवाय अन्य मायावी कार्य और देवी - देवताओं को पीव करके अर्थात् ईश्वर करके नहीं जानते हैं । उस परमेश्वर को पूर्ण रूप से ह्रदय में देखते हैं, इस शरीर के बाहर और भीतर भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वही परिपूर्ण हो रहे हैं ॥७५॥
अन्तःपूर्ण बहिःपूर्ण मध्यपूर्णं तु संस्थितः ।
सर्वे पूर्णत्व आत्मेति समाधिः तस्य लक्षणम् ॥
शेर ~ नगर में, वन में, कुछ आलम निहारा है ।
जिधर देखौं उधर प्यारे, यही जलवा तिहारा है ॥
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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