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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३/१४८*
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*दादू छाने छाने कीजिये, चौड़े पकट होइ ।*
*दादू पैस पयाल में, बुरा करे जनि कोइ ॥१४८॥*
दृष्टांत -
पुत्री पै संकल्प किया, नृप का बाजा ढोल ।
फिर सु लख शोभा भई, सब जग सुलटा बोल ॥१९॥
एक राजा की पुत्री परम सुन्दरी थी । वह विवाह के योग्य हुई तब राजा ने संकल्प किया इसके साथ मैं ही विवाह करलूं तो क्या हानि है ? फिर राजा ने एक दिन अपनी सभा में प्रस्ताव रखा कि अपनी उत्पन्न की हुई वस्तु आप ही वर्ते तो क्या हानि है ?
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मंत्री मण्डल ने राजा के हृदय की बात को पहचान लिया और कहा - सब वस्तु ऐसी नहीं होती हैं जो उत्पन्न करने वाला वर्त सके । राजा के उक्त मानस पाप का प्रचार सब प्रजा में हो गया । गुप्तचरों ने राजा को सुनाया कि प्रजा कहती है कि यह राजा महापापी है जो अपनी पुत्री के साथ विवाह करना चाहता है ।
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राजा ने सोचा मैंने किसीको कहा तो नहीं था मन में ही संकल्प किया था किन्तु ईश्वर सर्वज्ञ हैं और वह आत्मरूप से सबमें स्थित हैं । इससे मेरे संकल्प को सबने जान लिया है और वास्तव में यह संकल्प अनुचित ही है ।
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राजा ने उक्त संकल्प बदल दिया और राजसभा में घोषणा की जो धर्म विरुद्ध अपनी पुत्री से विवाह करेगा, उसे फाँसी का दण्ड मिलेगा । यह सुनकर सब प्रजा के विचार बदल गये और सब कहने लग गये राजा तो धर्मनिष्ठ है । सोई १४८ की साखी में कहा है कि छाने - छाने करने पर भी व्यक्ति के पाप - पुण्य अपने आप ही प्रकट हो जाते हैं, जैसे उक्त राजा के ।
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