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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/९१*
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*दादू अवगुण छाडे गुण गहे, सोइ शिरोमणि साध ।*
*गुण अवगुण तैं रहित हैं, सो निज ब्रह्म अगाध ॥९१॥*
दृष्टांत -
गुण ग्राहक इक नृपति था, अवगुण लेता नांहि ।
मरे श्वान को देख के, दांत सराहे तांहि ॥२०॥
एक राजा संतों के संग से गुणग्राहक बन गया था । वह प्रत्येक व्यक्ति व वस्तु से गुण ही ग्रहण करता था । उस राजा के प्रधान मंत्री ने एक दिन विचार किया कि मैं राजा को ऐसी वस्तु दिखाऊं जिसमें कु़छ भी गुण न हो, तब उससे क्या ग्रहण करेंगे ? एक दिन मंत्री ने एक मरे हुये कुत्ते को देखा, उसमें बहुत दुर्गन्ध भी आ रही थी ।
मंत्री राजा को भ्रमण के निमित्त से उसके पास ले गया और बोला - राजन ! यह कुत्ता मर गया है इसमें बहुत दुर्गन्ध आ रही है । यह सुनकर राजा ने कहा - इसके दांतों की ओेर देखा, कितने श्वेत और सुन्दर हैं । ऐसे तो नित्य दातुन करने वाले मनुष्य के भी श्वेत नहीं रहते । राजा ने उस दुर्गन्धपूर्ण मरे हुये कुत्ते से भी गुण ही ग्रहण किया था । अवगुण की ओर उसकी दृष्टी ही नहीं गई । सोई उक्त ९१ की साखी में कहा है - जो अवगुणों को छोड़ कर गुण ही ग्रहण करता है, सोई शिरोमणि साधु माना जाता है । जैसे उक्त राजा ।
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