卐 दादूराम~सत्यराम 卐
.
*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
चतुर्दश दिन
.
एक खिला इक में इक देखे,
खिले स्रदय उनके जिन पेखे ।
सर में कंज भानु लख फूला,
आत्मा हिय मन सुख में झूला ॥१७॥
आ. वृ. - “एक में एक को देखकर के एक खिल पड़ा और उस खिले हुये को जिन-जिन ने देखा, उनके भी स्रदय खिल गये । बता वे कौन हैं ?’’
वा. वृ. - “तालाब में कमल खिले हैं, सूर्य भगवान को देख कर के । फिर उन खिले कमलों को जो कोई देखते हैं, उनके मन भी कमल पुष्पों की शोभा को देख कर आनन्दित होते हैं ।’’
वा. वृ. - “नहिं सखि ! देह में स्थित आत्मा को देखकर साधक का स्रदय खिला है । उस शुद्ध अधिकारी को, जिसका स्रदय खिला है, देखकर सभी के मन प्रसन्न होते हैं । तेरा भी जब संशय विप्पर्य रहित मन होगा तब वास्तव स्वरूप देख के स्रदय खिल जायगा और तेरा दर्शन कर के लोक कृत कृत्य हो जाया करेंगे ।’’
.
ज्यों का त्यों दीखे थिर मांही,
चंचल में भल भासे नांहीं ।
जल में रवि प्रतिबिम्ब पिछाना,
हिय में आत्मा तू नहिं जाना ॥
आ. वृ. - “स्थिर में तो जैसा होता है वैसा ही भासता है और चंचल में अच्छी प्रकार नहीं दीखता । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “यह तो जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब है । जल स्थित होता है तब तो सूर्य का प्रतिबिम्ब खंडित-सा दीखता है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो आत्मा है । जब स्रदय शुद्ध और स्थिर हो जाता है तब तो अच्छी प्रकार भासता है और अशुद्ध तथा चंचल स्रदय होता है तब आत्मा का वास्तव स्वरूप नहीं भासता । तेरा अन्त:करण मल और विक्षेप दोष से रहित होते ही, गुरु ज्ञान शीघ्र ही तू भी आत्म दर्शन कर सकेगी । फिर भेद भावना सदा के लिये नष्ट हो जायगी ।’’
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें