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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३/११९*
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*बासन विषय विकार के, तिन को आदर मान ।*
*संगी सिरजन हार के, तिन सौं गर्व गुमान ॥११९॥*
दृष्टांत -
कूबा की तिय भ्रात हित, खीर करी मति हीन ।
संतन के हित राबड़ी, कूबे लीन्हा चीन्ह ॥१५॥
केवलकूबा झीथड़ा गांव(पाली मांरवाड़) के कुम्हार थे और भगवान के भक्त थे तथा संतों की सेवा भी अति प्रेम से करते थे । अतः इनके यहां संत आते ही रहते थे । एक दिन आपके यहां संत भी पधारे थे और आपकी पत्नी पूरी बाई के भाई भी आये थे ।
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पूरी ने भाइयों के लिये खीर बनाई और संतों के लिये बाजरा का खीचड़ा बनाया । कूबा को यह अच्छा नहीं लगा, उसने खीर संतों को जिमाना चाहा । पानी को खाली करके कहा - पानी तो है ही नहीं पानी बिना कैसे जिमाओगी ? दो घड़े देकर उसे पानी लाने भेज दिया और संतों की पंक्ति लगाकर खीर परोस दी । वह आई तो संतों को खीर जीमते देखकर बोलने लगी गाय खाओ गाय खाओ ।
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संतों ने पू़छा - माताजी क्या कहती हैं ? कूबा ने कहा - यह कहती है कि अन्य संत तो जीमते समय श्लोक गाते - गाते जीमते हैं, आप भी गाकर खाओ । संत श्लोक बोलने लगे । फिर वह चौक में बैठकर धूलि की अंजलि उठा - उठाकर पटकने लगी अर्थात् धूलि खाओ । संतों ने पू़छा - माताजी क्या कहती हैं ? कूबा ने कहा - यह कहती है खीर में बूरा कम हो तो और दे दो । फिर कूबा उठे और बूरा देने लगे । फिर संतों के चले जाने पर कूबा ने कहा -
संता आये अनमनी, भाई आये शूरी ।
केवलकूबा यूँ कहै निकलो घर से पूरी ॥
फिर पूरी को कूबा ने घर से निकाल दिया था ।
(क्रमशः)
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